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________________ अक्रियावादी - जो अवस्थान के अभाव का प्रसंग प्राप्त होने की संभावना के अवस्थान से रहित किसी भी अनवस्थित पदार्थ की क्रिया को स्वीकार नहीं कर सकते, वे अक्रियावादी हैं। अकेवली- छद्मस्थ-केवलज्ञान प्राप्ति के पूर्व की अवस्था। अकरणोपशमना - जैसे पर्वत पर प्रवाहित होने वाली सरिता के पाषाण में बिना किसी प्रकार के प्रयोग के स्वयमेव गोलाई आदि उत्पन्न हो जाती है, वैसे संसारी जीवों की अधःप्रवृत्तिकरण प्रभृति परिणाम स्वरूप क्रिया विशेष के बिना ही केवल वेदना के अनुभव आदि से कर्मों से जो उपशमन- उदय परिणाम के बिना अवस्थान होता है वह अकरणोपशमना है। __ अकाल मृत्यु - असमय में, बद्ध आयुस्थिति पूर्ण होने के पूर्व ही, जीवन का नाश होता है। अकषाय - जिस जीव के संपूर्ण कषायों का अभाव हो चुका है, वह अकषाय अथवा अकषायी है। अगति - गति नाम कर्म का अभाव हो जाने से सिद्ध गति अगति कही जाती है। आगारी - आगार का अर्थ घर है। आरंभ और परिग्रह रूप घर से जो सहित है, वह गृहस्थ अथवा आगारी है। अगीतार्थ - जिसमें छेद सूत्र का अध्ययन नहीं किया है, या अध्ययन करके भी जिसे विस्मृत हो गया है, ऐसा श्रमण अगीतार्थ है। अगुरुलघु- गुरु या लघुता के न होने का नाम। न बड़प्पन और न छोटापन। अगुरुलघु गुण - जीवादिक दृष्यों की स्वरुप प्रतिष्ठा का कारण जो अगुरुलघु नामक स्वभाव है और उसके प्रति जो समय है। अघाति कर्म - आत्मा के अनुजीवी गुणों का या वास्तविक स्वरूप (ज्ञान दर्शन चरित्रादि) का घात करने वाले कर्म को अघाति कर्म कहते हैं। वे चार हैं - (१) वेदनीय (२) आयुष्य (३) नाम और (४) गोत्र अथवा जीव के प्रतिजीवी गुणों के घात करने वाले कर्म। उनके कारण आत्मा को शरीर की कैद में रहना पड़ता है। अघातिनी प्रकृति - जो प्रकृति आत्मिक गुणों का घात नहीं करती है। अचक्षुदर्शन - चक्षुरिन्द्रिय के सिवाय शेष चार इन्द्रियों और मन से होने वाला सामान्य प्रतिभास या अवलोकन। अचक्षु दर्शनावरण - अचक्षु दर्शन को आवरण करने वाला कर्म। । अचौर्य महावत - ग्राम, नगर या अरण्य आदि किसी भी स्थान पर किसी के रखे, भूले या गिरे हुए द्रव्य के ग्रहण की भी इच्छा नहीं करना। ५१० जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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