________________
सभी दर्शनों में चित्तवृत्तिनिरोध को ध्यान कहा है, जब कि जैन दर्शन में योगनिरोध को ध्यान कहा है। योग का निरोध होने पर जीव मोक्षावस्था को प्राप्त कर सकता है।
ध्यान के बल से जीव को ज्ञान जन्य, चारित्रजन्य तथा तपोजन्य अनेक प्रकार की लब्धियां प्राप्त होती हैं। सभी दर्शनों में लब्धियों का प्रयोग करने के लिये इन्कार किया गया है। ध्यान से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है। ध्यान ही एक ऐसा रसायन है, जो समस्त कर्मों को जलाकर सिद्धत्व को प्राप्त करा सकता है। इसलिये आत्मलक्ष्यी साधक के लिये 'अरिहंत और सिद्ध' का ही ध्यान करना चाहिए। ध्येय के अनुसार साधन अपनाये जाते हैं। हमारा ध्येय मोक्ष को प्राप्त करना है। उसके लिये अरिहंत और सिद्ध ध्यान ही श्रेयस्कर है। और यही स्वयं को जानने की कुंजी है।
प्रस्तुत शोध प्रबंध में मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी ध्यानयोग का विचार किया गया है। ध्यानसाधना में मन का केन्द्रीकरण अत्यावश्यक माना जाता है। मन को केन्द्रित करने के लिये मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में ध्यान की स्थिति तक पहुंचने में तीन मानसिक स्तरों से गुजरने का दिग्दर्शन किया है। मानसिक स्तर निम्नलिखित हैं - चेतनमन, चेतनोन्मुख मन और अचेतन मन।
मनोविज्ञान की दृष्टि से जिस वस्तु पर चेतना का प्रकाश सबसे अधिक केंद्रित होता है वही ध्यान का विषय है। ध्यानावस्था में मन को ही क्रमशः स्थिर किया जाता है। उसके लिये मन की तीन दशाएं वर्णित की गई है- १. अवधान, २. सकेंद्रीकरण और ३. ध्यान। ध्यान में विचारों का स्वरूप अधिक तीव्र और केंद्रित होता है। इसीलिये मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी ध्यान, मन की एक विशिष्ट कृत-केन्द्रित क्रिया है।
ध्यान के विषय में सभी विचारकों एवं तत्त्वचिंतकों का एक ही मंतव्य है कि मन की चंचलता को स्थिर करना। यह स्थिर अवस्था ही ध्यान है। ध्यान में मन की प्रक्रिया विशिष्ट है।
ध्यान की प्रक्रिया से शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। इसके लिये शुद्ध आचरण की आवश्यकता है। जितना आचरण पवित्र व शुद्ध होगा, उतनी ध्यानावस्था सुलभ होगी। यही मेरा निश्चय मत है।
. वर्तमानकालीन परिस्थितियों में ध्यान प्रक्रिया को जीवन में उतारना अत्यावश्यक है। क्योंकि ध्यान एक ऐसी मौलिक प्रक्रिया है, जो चैतन्य की अनंत क्षमताओं का उद्घाटन करती है और जीवन की विकीर्ण शक्तियों को केंद्रित करती है।
ध्यान एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा आत्मा में छिपी परमात्मा की आभा मुखरित होती है। ध्यान ही एक चावी है, जिससे अन्तःकरण का ताला खुलता है। साधना के मार्ग में ध्यान वैसा ही है, जैसा आकाश में सूर्य। ध्यान ही साधुता की जड़ है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
४९७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org