SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 557
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संसारी जीव अनंत हैं। अतः किसी एक व्यक्ति के आधार से उन सबकी बंधादि संबंधी योग्यता का दिग्दर्शन नहीं कराया जा सकता और न यह संभव भी है। इसके अतिरिक्त एक व्यक्ति को कर्मबंधादि संबंधी योग्यता भी सदा एक समान नहीं रहती है। इसीलिये आध्यात्मज्ञानियों ने संसारी जीवों के उनकी आभ्यंतर, शुद्धिजन्य उत्क्रांति, अशुद्धिजन्य अपक्रांति के आधार पर अनेक वर्ग किये हैं। इस वर्गीकरण को शास्त्रीय परिभाषा में 'गुणस्थान क्रम' कहते हैं। आत्मा के विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। इन गुणस्थानों का क्रम संसारी जीवों की आंतरिक शुद्धि के तरतम भाव के मनोविश्लेषणात्मक परीक्षण द्वारा सिद्ध करके निर्धारित किया गया है। गुणस्थानों की संख्या चौदह है। मोहनीय कर्म के उपशम अथवा क्षय करने में उद्यत बने हुए श्रेष्ठ मुनि दर्शन सप्तक की सात प्रकृतियों को छोड़कर शेष इक्कीस मोहनीय कर्म की प्रकृति का उपशम अथवा क्षय करने के लिये श्रेष्ठ ध्यान की प्रक्रिया प्रारंभ करते हैं। इसमें संपूर्ण रूप से धर्मध्यान के चारों ही भेदों की प्रधानता होती है। रूपातीत ध्यान के कारण अंश मात्रा में शुक्लध्यान का प्रथम भेद 'पृथक्त्व - वितर्क - सविचार' की प्रधानता होती है। इसमें उत्तम ध्यान की प्रक्रिया प्रारंभ होने के कारण स्वाभाविक आत्मशुद्धि होने लगती है। मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने पर जीव बारहवें गुणस्थान की अवस्था प्राप्त करते ही द्वितीय 'एकत्व - वितर्क- अविचार' शुक्लध्यान को ध्याता है। मोहनीय कर्म का क्षय क्षपक श्रेणी से ही किया जाता है। इसमें साधक घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है । बाद में आउज्जीकरण 'केवलीसमुद्घात' तथा 'योग निरोध' की प्रक्रिया करके शुक्लध्यान का तीसरा भेद 'सूक्ष्मक्रियानिवर्ती' नामक शुक्लध्यान करते हैं या होता है। जब सयोगकेवली मन, वचन, और काया के योगों का निरोध कर योगरहित होकर शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, तब वे अयोगीकेवली कहलाते हैं और उनके स्वरूप विशेष को अयोगीकेवली गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान में मोक्ष प्राप्त करने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इसमें चौथे शुक्लध्यान 'समुच्छिन्न क्रिया' नामक ध्यान कोयाते हैं। यह ध्यान ही मोक्ष का प्रवेश द्वार है। साधक ध्यान के द्वारा संवरनिर्जरा करके समस्त कर्मों का क्षय करता है । समस्त कर्मों को क्षय करने वाला सिद्धत्व को प्राप्त करता है। सिद्ध परमात्मा की अवस्था ध्यान से ही प्राप्त होती है। ४९६ Jain Education International जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy