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________________ सर्वविरति चारित्र श्रमण धर्म है। इसमें साधना आंशिक रूप से न होकर पूर्ण रूप से होती है। . अपुनबंधक, सम्यग्दृष्टि, देश-विरति, सर्वविरति ये चार प्रकार के साधक ही ध्यान की योग्यता प्राप्त कर सकते हैं। चारित्र के विभिन्न आयामों में (उत्सर्ग-अपवाद मार्ग, श्रमण समाचारी, षडावश्यक) ध्यान ताने बाने की तरह गुंथा हुआ है। ध्यान के बिना आध्यात्मिक साधना हो नहीं सकती। सभी साधनाओं में ध्यान तो है ही । इसीलिये ध्यान-योग को द्वादशांगी का सार कहा है। सभी तीर्थों में ध्यानयोग ही श्रेष्ठ है। ध्यान का स्वरूप : ध्यान शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। व्यावहारिक रूप में ध्यान का सामान्य अर्थ सोचना, विचारणा, ध्यान रखना, दशा, समझ, स्मृति, बुद्धि, याद, स्मरण आना, ध्यान आना आदि है और विशेषार्थ मानसिक प्रत्यक्ष, प्रशस्त ध्यान, विशिष्ट प्रकार की एकाग्रता है। मन की दो अवस्थाएं हैं - ध्यान और चित्त। समस्त विकल्पों से रहित मन-वचनकाय की विशिष्ट प्रवृत्ति से आत्मस्वरूप में अग्नि की स्थिर ज्वाला की तरह एक ही विषय में मन का स्थिर होना ध्यान है। यही प्रशस्त ध्यान है। इसके लिये आगम में ध्यानयोग, समाधियोग, भावनायोग और संवरयोग शब्द का प्रयोग किया गया है। 'स्व' स्वरूप का बोध ध्यानयोग के बिना हो नहीं सकता है। 'स्व' को जानने के लिये ध्यान की प्रक्रिया ही श्रेष्ठ है। क्योंकि किसी वस्तु में उत्तम संहनन वाले को अन्तर्मुहूर्त के लिये चित्तवृत्ति का रोकना यानी मानसज्ञान में लीन होने को ध्यान कहा जाता है। मानसिक ज्ञान का किसी एक द्रव्य या पर्याय में स्थिर होना-चिंता का निरोध करना ही ध्यान है। एकाग्र चिंतानिरोध ध्यान ही संवर निर्जरा का कारण होता है। एक ही वस्तु का आलंबन लेकर मन को एकाग्र करना ध्यानयोग है। ध्यान योग के दो सोपान हैं। छद्मस्थ का ध्यान और जिन का ध्यान। मन की स्थिरता छद्मस्थ का ध्यान है और काया की स्थिरता जिन का ध्यान है। जो स्थिर मन है वह ध्यान है और जो चंचल मन है वह चित्त है। चंचल चित्त की तीन अवस्थाएं हैं - भावना, अनुप्रेक्षा और चिंता। भावना का अर्थ ध्यान के लिये अभ्यास की क्रिया है, जिससे मन भावित हो। अनुप्रेक्षा का अर्थ पीछे की ओर दृष्टि करना, तत्त्वों के अर्थ (अध्ययन) का पुनः पुनः चिंतन करना है। चिंता का अर्थ मन की अस्थिर अवस्था है। इन तीन अवस्थाओं से भिन्न चित्त की स्थिर अवस्था ही ध्यान है। ___आगम में ध्यान के भेद प्रभेदों का वर्णन किया गया है और नियुक्ति में उन्हीं ध्यान को दो भागों में विभाजित किया है - शुभ ध्यान और अशुभ ध्यान। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग ४९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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