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किसी भी समय मोक्ष पाने की योग्यता ही नहीं रखते हैं, वे अभव्य कहलाते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण की अवस्था दोनों प्रकार के जीवों की होती है। इनमें भव्य जीवों को बाह्य
और आभ्यन्तर योग्य साधन सामग्री के मिलने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती ही है। कषाय की मंदतम स्थिति को प्राप्त करने पर जीव में अपूर्वकरण की अवस्था प्राप्त होती है। इसमें ग्रंथिभेदन किया जाता है। 'अपूर्वकरण' में पांच प्रकार के कार्य अपूर्व ही होते हैं, जैसे कि स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि, गुणसंक्रमण और अपूर्व स्थितिबंध। स्थितिघात आदि पदार्थों का अपूर्व विधान होने से इसे अपूर्वकरण कहते हैं। यह अपूर्वकरण की अवस्था जीव को दो बार प्राप्त होती है, पहले सम्यक्त्व प्राप्ति के समय और दूसरी श्रेणी आरोहण के समय । दुर्भेद्य रागद्वेष की ग्रंथि तोड़ देने के बाद जीव अनिवृत्तिकरण की अवस्था प्राप्त करता है। इसमें भी स्थितिघातादि पांच कार्य होते हैं। अनिवृत्तिकरण के बाद जीव 'अंतकरण' द्वारा निश्चित ही सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। सम्यक्त्व प्राप्ति के आभ्यंतर तीन कारण हैं- औपशमिक सम्यक्त्व; क्षयोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्वा
सम्यक्त्व का सामान्य लक्षण पदार्थों में यथार्थ श्रद्धा होता है। तीन मूढताएं, आठ मद, आठ मल एवं छह अनायतन, इन पच्चीस दोषों से रहित तत्त्वार्थ श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। वह उत्पत्ति, पात्र, श्रेणि, रुचि और विशुद्धि आदि इन सबकी अपेक्षा से अनेक प्रकार का है। उनमें सराग सराग सम्यग्दर्शन, शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य गुणों से शोभित होता है और वीतराग सम्यग्दर्शन आत्मा की विशुद्धिमात्र से प्राप्त होता है।सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद ही जीव में ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है।
ज्ञान आत्मा का निज गुण है जो स्व पर प्रकाशक है। सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान अज्ञान रूप होता है, जो संसार परिवर्धक होता है। तत्त्वार्थ श्रद्धान से प्राप्त होने वाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही जीव ध्यान की साधना कर सकता है। केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद जीव ध्यान के बल से सम्पूर्ण कमों को क्षय करके सिद्धत्व को प्राप्त करता हैं।
पांच प्रकार के पापों का (हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह) त्याग सम्यक् चारित्र है। चारित्र का मूल समता है। समता की आराधना ही चारित्र की साधना है। चारित्र के दो भेद माने जाते हैं - सकल चारित्र (सर्वविरति चारित्र - श्रमण धर्म) और विकल चारित्र (देश विरति - श्रावक धर्म) और भी चारित्र (संयम) के पांच प्रकार हैं - सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र, परिहार विशुद्ध चारित्र, सूक्ष्म संपराय चारित्र और यथाख्यात चारित्र। इनमें देश विरति चारित्र के आराधक श्रावक कहलाते हैं। व्यवहार और निश्चय सम्यक्त्व का धारक श्रावक श्रद्धावान, विवेकवान व क्रियावान होता है। उसके दो भेद होते हैं - सामान्य और विशेष।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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