________________
नो कषाय और हास्यादि नौ कषाय की उत्पत्ति होती है। इन्हीं के कारण कर्म बंध होते रहते हैं और जीव अचरमावर्त पुद्गल परावर्त संसार चक्र में सतत चक्कर लगा रहा है। परभाव (विभाव दशा) की प्रवृत्ति में से जब तक जीव का बाहर निकलना नहीं होता तब तक जीव का मोक्ष नहीं हैं। सविपाक निर्जरा तो जीव चारों ही गति में सतत करता रहता है। जब तक वह अविपाक निर्जरा का अधिकारी नहीं बनता; तब तक संसार में भटकता ही रहता है। जीव और अजीव तत्त्व का मिलन ही संसार है और इन दोनों का अलग होना ही मोक्ष है। प्रत्येक क्रिया के साथ ही उसके समान अथवा उससे विपरीत प्रतिक्रिया होती रहती है। प्रवृत्ति- निवृत्ति की भांति ही राग-द्वेष, हर्ष-शोक, बुभुक्षा-मुमुक्षा आदि द्वंद्वों की अविरल धारायें जीवन में उदयमान होती ही रहती हैं। द्वन्द्वों के चक्र के कारण ही संसार का रथ नियत चल रहा है। व्यावहारिक दृष्टि से यही संसार का विचित्र रूप है। यह विचित्रता विविध कर्म बंध के कारण है। कर्मबंध के हेतुओं का विनाश तभी संभव है जब कि मोक्ष के हेतुओं को अपनाया जाये।
साधना के दो अंग हैं - आध्यात्मिक व भौतिक। भौतिक साधना के अनेक पहलू हैं, जिसके द्वारा साधक अपने साध्य को सिद्ध करता है। परंतु उससे वह शाश्वत सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। भौतिक साधना का फल ही अशाश्वत सुख की उपलब्धि है। आत्मलक्षी साधक इन साधनों से दूर रहता है। वह तो आध्यात्मिक साधना द्वारा शाश्वत सुख को प्राप्त करता है। शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय ही हैं। इन्हीं के द्वारा वह अपने आपको जान सकता है।
साधना का मूल जानना है। आगमवाणी का भी यही कथन है कि 'जाणइ-पासइ' पहले जानो और बाद में देखो। आत्मा के निज स्वरूप को जानने के लिये कषायों की मंदता आवश्यक है। बीजरूप अपुनबंधक अवस्था में साधक बाह्य साधनों के द्वारा सम्यक्त्व प्राप्ति के सन्मुख बढने की तैयारी में रहता है। खेत में बीज बोने पर जमीन, हवा, प्रकाश, जल आदि का सहयोग मिलने पर बीज फल (फसल) के रूप में सामने आता है। इस स्थिति में जीव मार्गाभिमुख, मार्गपतित, मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों की 'पूर्व सेवा' संज्ञा को प्राप्त करके उनके सहयोग से मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटी सागरोपम की स्थिति का पुनः बंध नहीं करता है। जो दो बार मोहनीय कर्म की स्थिति का बंध करता है, उसे आगमवाणी में 'द्विबंधक' कहते हैं और जो एक बार ही बांधता है; उसे 'सकृत्बंधक' कहते हैं। परंतु जो मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बांधता ही नहीं है वह 'अपुनर्बधक' कहलाता है।
संसार में जीव की अवस्था दो प्रकार की है - भव्य और अभव्य। जो मोक्ष को प्राप्त करते हैं या पाने की योग्यता रखते हैं अथवा सम्यग्दर्शनादि भाव प्रगट होने की जिनमें योग्यता हो वह भव्य हैं। जो अनादि काल तक तथाविध पारिणामिक भाव के कारण जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
IFI
.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org