________________
जैन धर्म में कर्मसिद्धांत पर अधिक जोर दिया गया है। उसमें सर्वज्ञ के कथनानुसार बंधों को दुःख का कारण बताया गया है। बंध चार प्रकार के हैं - (१) प्रकृतिबंध, (२) स्थिति बंध, (३) रस बंध (अनुभाव, अनुभाग) और (४) प्रदेशबंध। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्तों से ज्ञानावरणादि पौद्गलिक द्रव्य कमों में परिणत होकर अनंतानंत प्रदेश वाले सूक्ष्म कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ क्षीर-नीरवत् एक क्षेत्रावगाढ़ होकर मिल जाना बंध कहलाता है। संसार में चार ही प्रकार का बंध होता है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म रज का मिथ्यात्वादि हेतुओं के निमित्तों से जीव के साथ मिल जाने पर कर्म संज्ञा को प्राप्त होते हैं। क्योंकि जैन धर्म में कर्म की व्याख्या स्पष्ट करते हुये कहा गया है, कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जीव द्वारा जो कुछ किया जाता है; उसे कर्म कहते हैं; दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मा की रागद्वेषात्मक क्रिया से आकाश प्रदेशों में विद्यमान अनंतानंत कर्म के सूक्ष्म पुद्गल चुंबक की तरह आकर्षित होकर आत्मप्रदेशों से संक्लिष्ट हो जाते हैं। उसे कर्म कहते हैं।
बंध के मुख्यतः तीन हेतु बतलाये हैं - मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, और मिथ्याचारित्र, जो कि हेय तत्त्व हैं। ये ही दुःख के कारण हैं। मिथ्यादर्शन के कारण ही जीवात्मा अनादिकाल से संसार में चक्कर लगा रहा है। इसमें अनंतानंत पुद्गल परावर्तकाल व्यतीत कर चुका है। क्योंकि लोक अनेक प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं से भरा हुआ है। उसमें ग्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्य ऐसी दो प्रकार की वर्गणाएं हैं। अग्रहण योग्य वर्गणाएं अपना अस्तित्व रखते हुए भी ग्रहण नहीं की जाती हैं, किंतु ग्रहण योग्य वर्गणाओं में भी ग्रहण और अग्रहण योग्य वर्गणाएं हैं। ग्रहणयोग्य वर्गणाएं आठ प्रकार की हैं- (१) औदारिक शरीर वर्गणा, (२) वैक्रिय शरीर वर्गणा, (३) आहारक शरीर वर्गणा, (४) तैजस शरीर वर्गणा, (५) भाषा वर्गणा, (६) श्वासोच्छ्वास वर्गणा, (७) मनोवर्गणा और (८) कार्मणवर्गणा।
ये वर्गणाएं क्रम से उत्तरोत्तर सूक्ष्म होती हैं और उनकी अवगाहना भी उत्तरोत्तर न्यून अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती हैं।
__ अनंत उत्सर्पिणी और अनंत अवसर्पिणी काल का एक पुद्गल परावर्त होता है। ऐसे जीवात्मा ने अनंतानंत पुद्गल परावर्तकाल 'निगोद' अवस्था में व्यतीत किये हैं। उसने द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में भी अनंतानंत पुद्गल परावर्त काल व्यतीत किये हैं। पंचेन्द्रिय में नारक, तिर्यंच, मनुष्य व देव रूप में जन्ममरण करके किया है। किंतु सम्यग्दर्शन के अभाव में वह संसार में भटकता ही रहा है। मोहनीय कर्म सब कमों मे राजा के समान है। मिथ्याज्ञान उसके मंत्री का कार्य करता है और अहंकार- ममकार, उसके अनुज (पुत्र) ही हैं। इन दोनों के कारण ही 'मोह' की सेना का चक्रव्यूह जीतना दुर्भद्य बना हुआ है। इसके कारण ही अहंकार-ममकार से रागद्वेषादि, रागद्वेषादि से क्रोधादि, सोलह ४९२
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org