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सारांश
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग संसार के सभी प्राणी नाना प्रकार के दुःखों से संतप्त बने हुए हैं। वे आधिव्याधि-उपाधि आदि सभी दुःखों से छूटना चाहते हैं। परंतु छूट नहीं पाते। उन्हें दुःख के कारणों एवं सुख प्राप्ति के साधनों का ठीक सा परिज्ञान नहीं है। जिन्हें कुछ परिज्ञान है तो उनकी उस पर श्रद्धा नहीं है। श्रद्धा के अभाव में संसार-वृद्धि होती है। संसार वृद्धि ही दुःख का मूल कारण है। ___संसार में दो प्रकार के तत्त्व हैं - हेय और उपादेय। हेय तत्त्व संसारवृद्धि के कारण हैं और उपादेय तत्त्व संसार विनाशक । संसार वृद्धि के कारण अज्ञानता प्रसार व षड्रिपु हैं। वे हेय हैं। इन्हें दूर करने के लिये उपादेय तत्त्व को ग्रहण करना होगा। धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ में 'मोक्ष' पुरुषार्थ ही उपादेय है। ऋषिमुनियों, तत्त्व-चिंतकों, विचारकों तथा दार्शनिकों ने एक अवाज से मोक्ष तत्त्व को स्वीकार किया है। मोक्ष तत्त्व को प्राप्त करने के लिये भारतीय दर्शन के सभी तत्त्वचिंतकों ने एवं ज्ञानियों ने स्वानुभूति के अनुसार भिन्न-भिन्न मोक्ष हेतुओं का प्रतिपादन किया है।
भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक चिंतनधाराओं को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया गया है : वैदिक (हिंदू), बौद्ध और जैन। इन तीन धाराओं ने हेय तत्त्व का नाश करने हेतु उपादेय तत्त्व का अपने अपने चिंतन मंथन से निकाली हुई मक्खन रूपी विभिन्न साधनाओं का प्रतिपादन किया है। ___वैदिक धर्म में चित्त की एकलीनता के लिये नामस्मरण की प्रक्रिया से 'स्थूलध्यान' और 'महाभाव' समाधि, प्रकृति के सूक्ष्म रूप के चिंतनार्थ 'बिन्दुध्यान' एवं 'महालय' अथवा लयसिद्धियोग समाधि, प्राणायाम के माध्यम से समाधि अवस्था का नाम 'महाबोध' समाधि और 'ज्योतिध्यान', यम नियमादि अष्टांग योग के माध्यम से ब्रह्मध्यान आदि की प्रक्रिया का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। मन की एकलीनता ही ध्यानयोग है।
बौद्धधर्म में भी समाधि के अन्तर्गत ही ध्यानयोग का विवेचन किया है। ध्यान के साथ ही समाधि, विमुत्ति, शमथ, भावना, विसुद्धि, विपस्यना, अधिचित्त, योग, कम्मट्ठान, प्रधान, निमित्त, आरम्भण आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। अकुशल कों के दहन के लिये शील, समाधि, प्रज्ञा, चार आर्य सत्य, (१) दुःख (२) दुःख समुदय (३) दुःख निरोध व (४) दुःख निरोध गामिनी के रूप में अष्टांगिक साधना मार्ग का प्रतिपादन किया है।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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