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सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स या
सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते।। ध्यान का संबंध भीतर से है। बाहर से नहीं। ध्यान भीतर भीतर ले जानेवाला है। भीतर इतना जाता है कि कुण्डलिनी जग जाती है, षट्चक्र भेदन हो जाते हैं, सहस्रकमल रस से भीग जाता है, अन्दर में आनन्द का सागर हिलोरें लेने लगता है, एक ब्रह्मनाद होता है और व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है। उसे केवलज्ञान का प्रकाश मिल जाता है, जिससे जन्म मरण का चक्र कट जाता है और मोक्ष पा लेता है।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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