SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 537
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पन्न, तप्त तपोधारक, समस्त विद्याओं का धारक, मति श्रुत अवधि मनः- पर्यव ज्ञान धारक महातप लब्धि वाला होता है। घोर तप लब्धि :- उपवासों में छह मास का तपस्वी, अवमोदर्य तप में एक ग्रास का धारक, वृत्तिपरिसंख्याओं में चौराहे पर भिक्षा की प्रतिज्ञा धारक, रसपरित्याग में उष्णजलयुक्त ओदन का सेवन, विविक्तशय्यासन में वृक, व्याघ्र आदि हिंसक जीवों से सेवित अटवियों में निवास, कायक्लेश तप के अन्तर्गत हिमालय, वृक्ष अथवा खुले आकाश में आतापना - ध्यान करें। इसी प्रकार आभ्यन्तर तपों में भी निरन्तर आराधक घोर तपलब्धि धारक है। घोर पराक्रम लब्धि :- यह तपोजन्य है। तीनों लोक का उपसंहार, समुद्र का निगलना, समुद्र के जल को सुखाना, पृथ्वी का निगलना, जल, अग्नि, पर्वत आदि बरसाने की शक्ति प्राप्त करना घोर पराक्रम लब्धि है। यह आध्यात्मिक क्षेत्र में त्याज्य है। - घोर गुणबंभचारी लब्धि :- यह चारित्र के शुद्ध पालन से प्राप्त होती है। पांच समिति, तीन गुप्ति का धारक अघोर-शान्त गुण सम्पन्न होता है। राष्ट्रीय उपद्रव, रोग, दुर्भिक्ष, वैर, कलह, वध, बन्धन आदि को निवारण करने की शक्ति जिसे प्राप्त होती हैं वह अघोरगुणबंभचारी लब्धि है। आमोसहि :- 'आमीषधि' इस लब्धि के धारक तपस्वी किसी रोगी ग्लान आदि को स्वस्थ करना चाहे तो प्रथम मन में संकल्प करके, उसे स्पर्श करे, उनके स्पर्श मात्र से रोग शान्त हो जाता है। खेलोसहि :- खेल यानी श्लेष्म, खंखार, थूक। जिस योग शक्ति के प्रभाव से लब्धिधारी के श्लेष्म में सुगंध आती हो, और उसके प्रयोग-लेपन-स्पर्शन आदि से औषधि की भांति रोग शांत हो जाता हो, वह खेलोसहि लब्धि है। मल मूत्र की भांति खेल-खंखार से भी घृणा की जाती है, किंतु इनमें तपस्या के प्रभाव से दुर्गध के स्थान पर सुगंध आने लग जाती है फिर जहां कहीं भी उसका स्पर्श-लेपन-प्रयोग करने पर रोग शांत हो जाता है। • जल्लोसहि :- जल्ल नाम मल का है। शरीर के विभिन्न अवयव, जैसे, कान, मुख, नाक, जीभ, आंख आदि का जो मल = पसीना अथवा मैल होता है उसे 'जल्ल' कहा जाता है। तपस्वियों में लब्धि के प्रभाव से ये मल भी सुगंध देने लगते हैं तथा इनका स्पर्श भी औषधि की भांति रोग मिटाने की अद्भुत शक्ति रखता है। विप्पोसहि :- “विद्युडौषधि' 'वि' शब्द का अर्थ है शरीर द्वारा त्यक्त मल, और 'प्र' का अर्थ है - प्रस्रवण। पूरे शब्द विवुड का अर्थ है - मल-मूत्र। जिस लब्धि के जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व ४७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy