SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 535
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है। जंघाचारण लब्धि चारित्र और तप के विशेष प्रभाव से प्राप्त होती है। भगवती में इसकी साधना विधि का वर्णन करते हुए बताया गया है, निरंतर बेले-बेले तप करने वाले को विद्याचारण एवं निरंतर तेले-तेले का उग्र तप करने वाले योगी को जंघाचारण लब्धि प्राप्त होती है। जंघाचारण लब्धि वाला एक ही उड़ान में (उत्पात में) तेरहवें रुचकवर द्वीप तक जा सकता है। यह द्वीप भरतक्षेत्र से असंख्यात योजन दूर है। इस लब्धि धारक की पहली उड़ान शक्तिशाली होती है। किन्तु उड़ान करने में प्रमाद और कुतुहल होने के कारण लब्धि की शक्ति क्रमशः हीन व क्षीण होने लग जाती है, इस कारण एक उड़ान में रुचकवर द्वीप जाने वाला जब वहां से लौटता है तो वह बीच में थक जाता है, जिसके कारण बीच में नंदीश्वर द्वीप में उसे एक विश्राम लेना पड़ता है और वह दूसरी उड़ान में अपने स्थान पर लौट कर आ सकता है। जंघाचारण वाला यदि ऊपर ऊर्ध्व लोक में उड़ान भरता है तो वह सीधा सुमेरू पर्वत के शिखर पर पाण्डुकवन में पहुंच जाता है। यह सब वनों में सुंदर और सबसे अधिक ऊंचाई पर है। जब योगी वहां से वापिस लौटता है तो जाने की अपेक्षा आने में उसे अधिक शक्ति और समय लगता है। शक्ति की क्षीणता के कारण उसे नंदनवन में एक विश्राम लेना पड़ता है, और दूसरी उड़ान भरके अपने स्थान पर पहुंच जाता है। विद्याचारण लब्धि तप के साथ विद्या के विशेष अभ्यास द्वारा प्राप्त होती है। जंघाचारण से इसका तपक्रम सरल है, उसमें तेले-तेले की तपस्या की जाती है और इसमें बेले-बेले की। उसमें चारित्र की अतिशयता रहती है और इसमें ज्ञान की। विद्याधरों के आकाशगामिनी शक्ति में और विद्याचारणलब्धि में अंतर है। विद्याधरों को भी अभ्यास करना ही पड़ता है। परन्तु वह जन्मगत एवं जातिगत संस्काररूप में भी प्राप्त होती है। कुछ योगी मंत्र शक्ति से आकाश में उड़ान भर सकता है। किन्तु विद्याचारण लब्धि वाला मंत्रतंत्र व जन्मगत कारण से नहीं किन्तु तप के साथ विद्याभ्यास के कारण ही आकशगमन कर सकता है। विद्याचारण वाला तिरछे लोक में आठवें नन्दीश्वर द्वीप तक उड़कर जा सकता है। विद्याचारण की शक्ति प्रारंभ में कम और बाद में अधिक होती है। विद्याचारण वाला नंदीश्वर द्वीप में उड़ान भरते समय बीच में मानुषोत्तर पर्वत पर एक विश्राम लेता है और दूसरी उड़ान भरकर वह नंदीश्वरद्वीप पहुंचता है किन्तु लौटते समय परिशीलन से उसकी विद्या शक्ति प्रखर हो जाती है अतः एक ही उड़ान में सीधा अपने स्थान पर आ जाता है। इसी प्रकार ऊंची उड़ान भरते समय भी पहले नन्दनवन में विश्राम लेकर फिर दूसरी उड़ान में पाण्डुकवन में पहुंचता है, किन्तु लौटते समय में सीधे ही एक उड़ान में अपने स्थान पर आ जाता है। जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy