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________________ पूर्वधर लब्धि :- 'पूर्व' शब्द का अर्थ 'पहले' है। जैन परंपरा में पूर्व का अर्थ किया गया है - भगवान ने जो सबसे पहले गणधरों के सामने प्रवचन दिये - जिनमें समस्त वाड्मय का ज्ञान छिपा था- वे 'पूर्व' कहलाये। बारह अंग में दृष्टिवाद की रचना 'पूर्व' कहलाया। पूर्व चौदह हैं। जिस मुनि को नौ, दस से लेकर चौदह पूर्व तक का ज्ञान होता है वह पूर्वधर कहलाता है। जिस शक्ति के प्रभाव से उक्त पूर्वो का ज्ञान प्राप्त होता हो, वह पूर्वधरलब्धि कहलाती है। वर्तमान परम्परा में चौदह पूर्व के अंतिम ज्ञाता श्रीभद्रबाहु स्वामी हुए। अष्टांगनिमितज्ञान लब्धि :- अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न, भौम, स्वप्न और अन्तरिक्ष ये आठ महानिमित्तों के अंग हैं। इन सभी में पारंगत होना अष्टांगनिमित्तलब्धि है। इस प्रकार ये सभी ज्ञानजन्य लब्धियाँ हैं।५९ चारित्र एवं तपोजन्य लब्धियों का स्वरूप वैक्रियदेह लब्धि :- जैन धर्म में विक्रिया का अर्थ विविध क्रिया, अनेक प्रकार के रूप, आकार आदि रचना है। वैक्रिय देह लब्धि से शरीर के छोटे-बड़े, विचित्र-सुन्दर, हल्का, भारी, वज्र जैसा आदि अनेक रूप बनाये जाते हैं। उनके लिये अणिमा, महिमा, लघिमा (हवा सा हल्का), गरिमा (वज्र सा भारी), प्राप्ति (मेरू स्पर्श), प्राकाम्य (जल पर चलना), ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान और कामरूप आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ये सारी वैक्रियदेहलब्धियाँ हैं। विद्याधर लब्धि :- जातिविद्या, कुलविद्या और तपविद्या ये तीन प्रकार की विद्याएँ हैं। इनमें जाति और कुल विद्या विद्याधरों में होती हैं और तपविद्या साधुओं में होती है। ___चारण लब्धि :- जल, जंघा, तन्तु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणी इन आठ का आलम्बन लेकर चारणगण सुखपूर्वक विहार करते हैं। चारणों के दो सौ पचपन भेद माने जाते हैं, जिनका समावेश इन आठ में ही हो जाता है। जिस लब्धि के कारण आकाश में जाने आने की विशिष्ट शक्ति प्राप्त होती है, उसे चारण लब्धि कहा जाता है। चारण शब्द एक प्रकार का रूढ़ शब्द है, जिसका आकाशगामिनी शक्ति के रूप में जैन ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर प्रयोग हुआ है। भगवती सूत्र में चारणलब्धि के दो भेद बताये हैंजंघाचारण और विद्याचारण। जंघाचारण लब्धि का धारक पद्मासन लगाकर जंघा पर हाथ लगाता है और तीव्रगति से आकाश में उड़ जाता है। टीकाकार अभयदेव सूरि के कथनानुसार जंघाचारणवाला मुनि आकाश में उड़ान भरने के पहले मकड़ी के जाल जैसा तंतु, बटी हुई बाती अथवा सूर्य की किरणों का अवलंबन लेकर बाद में आकाश में उड़ता ध्यान का मूल्यांकन ४७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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