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७) रसऋद्धि :- इसके छह भेद हैं- आशीविष, दृष्टि विष, क्षीरास्रवी, मधु आस्रवी, सर्पिरामवी, अमृतास्रवी। ८) क्षेत्रऋद्धिः - इसके दो भेद हैं- अक्षीणमहानस और अक्षीणमहालय।
ज्ञानजन्य लब्धियों का स्वरूप कोष्ठकबुद्धि लब्धि :- जिस प्रकार कोठे में डाला हुआ धान्य बहुत काल तक ज्यों का त्यों सुरक्षित रहता है, इसी प्रकार जिसे कोष्ठक बुद्धि लब्धि प्राप्त होती है वह आचार्यादि के मुख से सुना हुआ सूत्र, अर्थ, तथा अन्य जो भी कुछ तत्त्व सुनता है उसे ज्यों का त्यों अविकलरूप से धारण करने में समर्थ होता है। इस लब्धि के प्रभाव से बुद्धि स्थिर धारणा वाली बन जाती है।
बीजबुद्धि लब्धि:-जैसे बीज विकसित होकर विशाल वृक्ष का रूप धारण करता है, उसी प्रकार बीज बुद्धि लब्धि के प्रभाव से एक सूत्र, अर्थ का ज्ञान कर लिया जाता है। यह लब्धि गणधरों में विशिष्ट रूप से होती है। वे तीर्थंकर के मुख से त्रिपदी (उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा ध्रुवे इ वा) का श्रवण करके सम्पूर्ण द्वादशांगी का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और बारह अंगों की रचना भी।
पदानुसारिणी लब्धि :- सूत्र के एक पद को सुनकर आगे के बहुत से पदों का ज्ञान बिना सुने ही अपनी बुद्धि से कर लिया जाता है। एक पद से अनेक पदों का ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता इस लब्धिधारी में होती है।
संभिन्नसोदारण (संभिन्न श्रोता) :- इस लब्धि के प्रभाव से साधक शरीर के किसी भी (कान, जीभ, आंख, नाक आदि) भाग से शब्दों को सुन सकता है अथवा किसी भी एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रियों का काम कर सकता है। इस लब्धि के प्रभाव से संभिन्न श्रोता लब्धि के धारक योगी की श्रोत्रेन्द्रिय शक्ति बहुत ही प्रचंड हो जाती है। सूक्ष्म और दूरस्थ विषय को ग्रहण करने की शक्ति संभिन्न श्रोतोलब्धि कहलाती है।
अवधि लब्धि :- इस लब्धि के बल से साधक को अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है।
ऋजुमति-विपुलमति लब्धि :- मनःपर्यव ज्ञान के ये दो भेद हैं- ऋजुमति और विपुलमति। ऋजुमति मनःपर्यव ज्ञान का धारक अढ़ाई द्वीप में कुछ कम (अढ़ाई अंगुल कम) क्षेत्र में रहे हुए संज्ञी (समनस्क) प्राणियों के मनो भावों को जानता है और सम्पूर्ण अढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी प्राणियों के मनोभावों को स्पष्ट रूप से, सूक्ष्मातिसूक्ष्म विचारों को जान लेना विपुलमति मनःपर्यव ज्ञान है। यह मनोज्ञान ऋजुमति लब्धि तथा विपुलमति लब्धि से प्राप्त होता है।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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