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ही रहती हैं। आत्मनियंत्रण और आत्मशोधन पद्धति से ध्यान योगावस्था विकसित होती है। सिद्धि की प्राप्ति होती है।
सिद्धि क्या है? :- संसार में दो प्रकार की शक्तियां मानी जाती हैं- १) भौतिक और २) आध्यात्मिका यंत्र तंत्रादि प्रयोग, तांत्रिक प्रयोग एवं पद्मावती, भैरवी, भवानी, काली आदि देवियों की उपासना से प्राप्त भौतिक शक्ति सिद्धि नहीं कहला सकती। वास्तव में भौतिक शक्ति 'जादू' है। आध्यात्मिक शक्ति ही सिद्धि कहलाती है, इसे ही लब्धि भी कहते हैं, जो धर्मध्यान और शुक्लध्यान के महा प्रभाव से ज्ञानजन्य, चारित्रजन्य, तपजन्य लब्धियाँ प्राप्त होती हैं। ध्यानयोग को चौदह पूर्व का सार कहा गया है। क्योंकि ज्ञानावरण कर्म के क्षय, क्षयोपशम से ज्ञानसंबंधी लब्धियाँ प्राप्त होती हैं, पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति आदि संवरयोग की आराधना से चारित्र संबंधी लब्धियाँ प्राप्त होती हैं और पूर्वसंचित कमों का क्षय और नये कर्मों का अभाव तपाराधना से होता है, इसे आगम भाषा में निर्जरा कहते हैं। तप से निर्जरा होती है।५४ इसलिये तपोयोग से (संवरनिर्जरा) संबंधी कुछ लब्धियाँ उत्पन्न होती हैं। __आज के वैज्ञानिक युग में विज्ञान ने आश्चर्यकारी अनुसन्धान बहुत किये है, किन्तु वे सब भौतिक जगत में ही हुये हैं। वस्तुपदार्थ और अणु विश्लेषण में विज्ञान ने आश्चर्यजन्य खूब प्रगति की है परन्तु आध्यात्मिक शक्तियों के बारे में वह आज भी गतिहीन है। आत्मा की अनन्तानन्त शक्ति का मापदण्ड विज्ञान नहीं कर सकता है। वैज्ञानिक योगियों के मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों के चमत्कार को देखकर दांतों तले अंगुली डाल देता है। विज्ञान की भाषा में जिसे 'विल पावर' कहा जाता है, वह एक प्रकार की मानसिक शक्ति ही है। मेस्मेरिज्झ के प्रयोग से हजारों मनुष्यों को सम्मोहित किया जा रहा है, असाध्य रोगों का इलाज किया जा रहा है। क्या यह भौतिक शक्ति है? नहीं, यह तो मानसिक शक्ति का एक छोटा-सा रूप है।
आज का संसार 'अणु' शक्ति से चकित है; किन्तु जब आत्मशक्ति का अनुभव हो जायेगा तो वह अलौकिक आनंद को प्राप्त कर जायेगा। आत्मा अनन्तानन्त शक्तियों से सम्पन्न है। इस आत्मशक्ति का विकास ध्यान से होता है और ध्यान 'लब्धि' या 'सिद्धि' को प्रदान करता है।
लब्धि क्या है? :- जिससे आत्मा के ज्ञान-दर्शन-चारित्र, वीर्य आदि गुणों से कर्मावरणों का क्षय होने पर तत् तत् संबंधित कमों के क्षय व क्षयोपशम से स्वतः आत्मा में जो शक्ति प्रगट होती है उसे लब्धि कहते हैं। यहां लब्धि का अर्थ लाभ है।५५ जैन धर्म में लब्धि शब्द का प्रयोग प्रायः इसी अर्थ में सर्वत्र किया गया है। लब्धि की प्राप्ति परिणामों की विशुद्धता, चारित्र की निर्मलता (अतिशयता) और उत्कृष्ट शुद्ध तपाचरण से प्राप्त
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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