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वैज्ञानिकों ने भी परीक्षण करके सिद्ध किया है कि रंगों का प्रकृति, शरीर और मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। लाल, नारंगी, गुलाबी एवं बादामी रंगों से मानव प्रकृति में उष्मा बढ़ती है। पीले रंग से भी उष्मा बढ़ती है। किन्तु उनकी अपेक्षा कम। नीले और आसमानी रंग से मानव प्रकृति में शीतलता का संचार होता है। हरे रंग से शीतोष्ण सम रहता है और श्वेत रंग से प्रकृति सदा सम रहती है। प्राकृतिक दृश्यों में भी ये रंग दृष्टिगोचर होते हैं। ५३ रंगों की आभा से मन प्रसन्न हो जाता है। जैनागम के कथनानुसार रंगों का (वों का) संबंध लेश्या के साथ लिया गया है। शुभ लेश्या में ध्यान करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः रंगों का प्रभाव शरीर, मन और आत्मा पर गहरा पड़ता है।
यह स्मरण रहे कि शुद्धि-अशुद्धि का आधार एकमात्र निमित्त ही नहीं, बल्कि निमित्त और उपादान दोनों ही हैं। अशुद्धि का उपादान कषाय की तीव्रता है और उसके निमित्त कृष्ण, नील और कापोत लेश्या के अशुभ पुद्गल हैं। शुद्धि का उपादान कषाय की मन्दता है और उसके निमित्त रक्त, पीत, श्वेत वर्ण के लेश्या के पुद्गल हैं। जैसे-जैसे कषाय की मन्दता होती है वैसे-वैसे भावों की शुद्धि होती जाती है और संवर निर्जरा में वृद्धि होती जाती है।
आज के विज्ञान ने शरीर और मन की चिकित्सा के लिये अनेक पद्धतियां प्रचलित की हैं, जैसे कि नैचरोपैथी, होम्योपैथी, एलोपैथी, हाइड्रोपैथी, इलेक्ट्रोपैथी, एवं मेन्टल हीलिंग, डिवाइन हीलिंग, फीलिंग चिकित्सा, सेल्फ हिप्नोसिस, आटो सजेशन. मंत्र-तंत्र चिकित्सा, फास्टिंग थेरेपी आदि अनेक चिकित्सा पद्धतियां हैं जो सिर्फ शरीर और मन की बीमारियों को चिकित्सा द्वारा दूर करते हैं। ये सारी चिकित्सा पद्धतियां आत्मा के रोग को दूर नहीं कर सकती हैं। उसके लिये तीर्थंकरों ने आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति प्रचलित की है- जिसका नाम है 'ध्यानयोग'। यह पद्धति शरीर, मन और आत्मा इन तीनों को रोगों से दूर करती है। तन की स्वस्थता, मन की स्थिरता और आत्मा की निर्मलता ध्यानयोग चिकित्सापद्धति से प्राप्त होती है। ध्यान और लब्धियाँ
आगम ग्रन्थों में आत्मशोधन की प्रक्रिया के लिये दो ही साधन बताये हैं - ज्ञान और ध्यान, उपशमन और क्षपन। जैसे-जैसे ज्ञानावरण के आवरण एवं कषाय उपशम होती है वैसे-वैसे ध्यान में स्थिरता आती है। उपशमश्रेणी और श्रपक श्रेणी ध्यान के लिये मुख्य बताई गयी हैं। ये दोनों ही श्रेणियां आठवें गुणस्थान से प्रारंभ होकर आगे के गुणस्थानों में विकास पाती हैं। उपशम श्रेणी ग्यारहवें गुणस्थान तक ही रहती है। परन्तु क्षपक श्रेणी आगे बढ़कर साधक को यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति कराके मोक्षप्रदान कराके
ध्यान का मूल्यांकन
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