SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के साथ युद्ध किया था। कर्मवैरी से अपने आपको सुरक्षित रखने के लिए श्रद्धानगर, तपसंवर-अर्गल, क्षमा-प्राकार (कोट), मनोगुप्ति-खाई, वचनगुप्ति-अट्टालक, कायगुप्ति-शतघ्नी इन सबको सर्वप्रथम तैयार करके पराक्रम-धनुष में ईर्यासमिति-जीवाप्रत्यंचा को स्थापित करके धृति-केतन (धनुष का मध्य) द्वारा सत्य से धनुष को बांधकर तप बाण से कर्मों को भेदन कर संसार से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। दुर्जय संग्राम में दस लाख सुभट को जीतने की अपेक्षा एक आत्मा को जीतनेवाला बलशाली योद्धा है। उसकी विजय सर्वोत्कृष्ट विजय है।४२ आगम का कथन है कि "तू आत्मा से ही युद्ध कर। तेरे लिए बाहर के युद्ध क्या काम के? आत्मा को आत्मा से जीतना ही सच्चा सुख है। एक मन को जीतनेवाला पांच (इन्द्रियाँ) को जीत सकता है। पांच को जीतनेवाला दस (पाँच इन्द्रियाँ, मन,चार कषाय) को आसानी से जीत सकता है"।४३ मन का निग्रह करना ही अत्यंत कठिन है। मन का निग्रह ही आत्म विजय है। "जिसने एक को जीता: उसने सबको जीता और जिसने सबको जीता उसने एक को भी जीत लिया"|४४ विषय विकार और कषाय को जीतना दुर्जय न बताकर एक मात्र मन (आत्मा) को जीतना ही दुर्जय कहा है। ध्यान प्रक्रिया में मन को जीतना ही मुख्य है। भरतचक्रवर्तीने मन को जीत लिया था जिसके कारण अरिसा भवन में देह का निरीक्षण करते-करते आत्मा का निरीक्षण करने लग गये। परिणामस्वरूप मानसिक विचारधारा तीव्र बढ़ गई। आध्यात्मिक श्रेणी क्षपक श्रेणी पर चढ़कर उसी भवन में केवलज्ञान की प्राप्ती कर ली।४५ मरुदेवी माता ने ध्यान बल से हाथी के हौदे पर ही पूर्वसंचित कर्मइन्धन को जलाकर भस्म कर दिया और केवलज्ञान पा लिया।४६ दृढ़ प्रहारी, हिंसक, चोर का हृदय, गर्भवती स्त्री के गर्भस्थ बालक के अवयवों को छिन्न-भिन्न कर देने पर उन्हें तड़फते हुए देखकर, कांप उठा। करुण क्रन्दन से दृढप्रहारी का हृदय परिवर्तन हो गया। मानसिक चिन्तनधारा बदल गई, पश्चात्ताप के नीर से स्व को निर्मल बनाने लगे और दुष्कृत कर्मों की गर्दा करने लगे। जिसके फलस्वरूप समस्त कर्मराशि को ध्यानाग्नि से जलाकर केवलज्ञान की प्राप्ति करके मोक्ष प्राप्त कर लिया।४७ यह सब ध्यान का ही फल है। चिलातीपुत्र ८ धन्नासार्थवाह की कन्या सुषुमा के सिर को लेकर आगे बढ़ा। वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में मुनि को देखा। मुनि ने उसकी योग्यता जानकर बोध में तीन पद दिये-"उपशम, विवेक और संवर"। इन त्रिपदी से चिलाती चोर से मुनि बन गया। मानसिक चिन्तन बढ़ गया कि "आज से में कषाय उपशम के लिए क्षमादि गुणों में वृद्धि करूंगा, समता की आराधना करूंगा, धन धान्य सुषुमा के सिर आदि का त्याग करके ज्ञान-विवेक का दीपक प्रज्वलित करूंगा, विषय विकारों से इन्द्रिय और मन को निवृत्त करके संवर की साधना करूंगा"। यह उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा थी। देह भान भूलकर चिलाती अनगार आत्मा के साथ युद्ध करने लग गये। चिन्तन की गहराई बढ़ ४६६ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy