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________________ शुद्धि, दैनिकचर्याशुद्धि और आहारशुद्धि मानसिक आध्यात्मिक लाभ के लिए परमावश्यक हैं। ध्यान प्रक्रिया तब ही विकसित होगी जब इन प्रक्रिया की सिद्धि होगी। जानना, देखना और प्रवृत्ति करना इन तीन शब्दों को जैन पारिभाषिक शब्दावली में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र कहा है । मानसिक और आध्यात्मिक साधना का स्वर यही रहा है कि मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को जानो, देखो और अनुभव करो। मानसिक तनावों के विसर्जन के लिए भावना अनुप्रेक्षा का आलंबन लिया जाता है। मन की मलिनता जैसे-जैसे दूर होती जाती है वैसे-वैसे ध्यान का क्रमिक विकास होता जाता है। मानसिक मनोविकारों का मूलहेतु मन की मलिनता ही है । - पहले बताया गया है कि ' थायरॉक्सिन रस और एड्रिनलिन रस' शरीर वृद्धि एवं स्फूर्ति में लाभदायक है वेसे ही मानसिक और आध्यात्मिक विकासक्रम में ज्ञान और क्रिया मोक्षदायक है। इन दोनों क्रिया के बिना ध्यान साधा नहीं जाता। ध्यान प्रक्रिया से कषायों का शमन होता है। कषायों का सर्वथा शमन (क्षय) ही मोक्ष है ४ । ज्ञानियों का कथन है कि कर्मों का शमन मन की स्थिरता पर आधारित है। जितनी मन की स्थिरता बढ़ती है, उतनी ही ध्यानावस्था दृढ़ होती है। ध्यान अन्तर्निरीक्षण की प्रक्रिया है । कषायों की ग्रन्थि को तोड़ने की विशिष्ट प्रक्रिया है। उसके लिए मानसिक शक्ति आवश्यक है। शारीरिक शक्ति की प्रबलता ही मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त कराती है। वज्रऋषभनाराच संहननवाला ही उत्कृष्ट कोटि का शुक्लध्यान कर सकता है। यह योग्यता जीवात्मा में ग्रन्थिभेद के बाद ही होती है, चाहे फिर वह चोर हो, डाकू हो, राजकुमार हो, पल्लीपति हो या अन्य कोई भी नीच आत्मा हो, उन सबको मोक्ष का पासपोर्ट मिल ही जाता है। जैनागमों के बत्तीस आगम को चार अनुयोगों में विभाजित किया गया है। इन चारों ही अनुयोगों के माध्यम से एवं ध्यान बल से साधक मानसिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करता है। कौशम्बीनगरी के राजा प्रभृत धन संचय के पुत्र के देह में दाहजन्यवेदनाएं उत्पन्न हुईं। पूरे शरीर में वेदनायें थीं। वेदना को शांत करने के लिए मंत्र तंत्रवादियों को बुलाया गया, किन्तु कोई इलाज नहीं हुआ। वैद्याचार्य आये। दाह शांत करने का प्रयत्न किया पर सब व्यर्थ। जब राजकुमार ने सोचा कि माता-पिता, परिवार, मंत्र, तंत्र, वैद्य कोई भी इस दाह रोग को शान्त करने में समर्थ नहीं बने, तब मानसिक चिन्तन बढ़ गया। दाहजन्य रोग को दूर करने के लिए रामबाण औषधि मिल गई - संयमवृत्ति अंगीकार करना। राजपुत्र अनगार बनकर अनाथीमुनि के नाम से प्रसिद्ध हो गये। ध्यान का बल इतना तीव्र बढ़ा कि दाहजन्य रोग तो मिटा ही; साथ ही साथ कर्मजन्य रोग को भी मिटा दिया ४१ । ध्यान का फल आत्मा को आत्मा से जीतना है। नमिराजर्षि ने आत्मा से आत्मा ध्यान का मूल्यांकन Jain Education International For Private & Personal Use Only ४६५ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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