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________________ करती है। शरीर में कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा अधिक बढ़ जाने पर ध्यानप्रक्रिया ऑक्सीजन को बढ़ा देती है। ध्यान बल से ही शरीर में ओजस्विता, तेजस्विता आती है। शरीर के लिए आहार की मात्रा : ध्यान साधना में शरीर स्वस्थता आवश्यक है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शुद्ध आहार जरूरी है। अल्प आहार करनेवाला ही ध्यान कर सकता है। अनासक्त भाव से सब दोषों को टालकर रूखा-सूखा आहार करनेवाला योगी आत्मज्ञानी हो सकता है। आधाकर्मी आहार कर्मबंधन का कारण है। इसीलिए महावीर ने उसे ग्रहण न करके शरीर को टिकाये रखने के लिए दीर्घ साधनाकालीन जीवन में थोड़े दिन ही शुद्ध आहार किया। आत्म बल को बढ़ाने के लिए तपाहार अधिक किया। ध्यान तप का अंग है। उच्चकोटि का साधक ही ध्यान का सतत आहार कर सकता है। अन्य साधक के लिए भगवान महावीर ने निर्दोष आहार की प्ररूपणा की। हितकारी, मितकारी और अल्पाहारी साधक ध्यान आसानी से कर सकता है। ध्यान साधक के लिए छह कारणों से आहार करने को कहा है। १) क्षुधावेदनीय के उपशमनार्थ, २) वैयावृत्यर्थ, ३) ईर्याशोधनार्थ, ४) संयमपालनार्थ, ५) प्राणसंधारणार्थ और ६) धर्मचिन्तार्थ।३६ जैनेतर ग्रन्थों में पथ्याहार और मिताहार का वर्णन है।३७ जितेन्द्रिय और स्वादविजेता साधक का शरीर स्वस्थ रहता है। स्वस्थ शरीरवाला ही शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त कर सकता है। शुद्ध आहार के प्रभाव से कण्ठमणि "थायरॉक्सिन' रस का उत्पादन करती है, जिससे सारा शरीर प्रभावित होता है। यह रस शरीर वृद्धि में लाभदायक है। यह अमृत का काम करता है। एड्रिनल ग्रन्थि से 'एड्रिनलिन' रस निकलता है जिससे शरीर में स्फूर्ति बढ़ती है। थायरॉक्सिन और एड्रिनलिन रस की भांति ही ध्यान भी शारीरिक स्फूर्ति में अमृत का काम करता है। ___ ध्यान से मानसिक और आध्यात्मिक लाभ : ध्यान कराया नहीं जाता वह अनुभूति का विषय है। महावीर ने अपने सम्पूर्ण साधना विधि (प्रक्रिया) का परिचय ध्यान शब्द से न देकर 'समता' (सामायिक) शब्द से दिया है। ध्यान का आधार समभाव है और समभाव का आधार ध्यान है। प्रशस्त ध्यान से केवल साम्य ही स्थिर नहीं होता, किन्तु कर्मसमूह से मलिन बना जीव भी शुद्ध होता है।३९ इसलिए ध्यान किया नहीं जाता वह फलित होता है तथा हमारे शारीरिक, मानसिक सन्तुलन दशा का परिणाम ही ध्यानावस्था है। इसके लिए चित्तशुद्धि परमावश्यक है। जो चित्तशुद्धि के बिना ही ध्यानावस्था लाना चाहते हैं; वे ध्यान की विडम्बना करते हैं। आसन जमाकर सीधे बैठना, रीढ़ की हड्डी को सीधे रखना, एकाग्रता की दशा में यह सब प्रयत्न आवश्यक (जरूरी) हैं। किन्तु इन अभ्यास के साथ चित्तशुद्धि, व्यवहारशुद्धि, विचारशुद्धि, आचारशुद्धि, व्यापार (योग) जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व ४६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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