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कड़कड़ाती सर्दी पड़ रही थी। यात्रियों ने उसी वृक्ष के नीचे रात्रि में विश्राम लिया और सबेरे सर्दी से बचने के लिये अग्नि जलायी। वे तो सूर्योदय के पहले वहां से चले गये। अग्नि की लपटें महावीर के पैरों तक गई, गोशाला तो आग की लपटों से घबराकर भाग गया पर महावीर ध्यान में ही लीन रहे । २० सर्दी गर्मी के अतिरिक्त दंश-मशक, सर्पादि विषैले जन्तु, काक, गीध, तीक्ष्ण चंचुवाले पक्षियों का प्रहार, दुष्ट लोगों का चोर समझकर शस्त्रों का प्रहार, कामातुर स्त्रियों के विविध उपसर्गों को भगवान महावीर ने समभाव से सहन किये। वे जानते थे कि कामभोग विषय वासना किंपाक की तरह विनाशक हैं। इसलिये वे सतत आत्मभाव में लीन रहते थे । २१
जब अनार्य देश में महावीर ने विहार किया तो वहां के अज्ञानी व्यक्तियों ने, उन्हें डंडों से मारा-पीटा व अनेक कष्ट दिये। कोई उनका तिरस्कार करते और कोई प्रशंसा भी करते, फिर भी वे तो अपने आप में मस्त रहते थे। अनार्य लोगों के असह्य प्रहारों से पीड़ित न होकर समभाव में लीन रहते थे। गीत, नृत्य, दंडयुद्ध, मुष्टियुद्ध को देखकर भी वे विस्मित नहीं होते थे । सदा ध्यानस्थ अवस्था में ही तल्लीन रहते थे । २२ लाढ देश के अनार्य लोगों ने महावीर के शरीर को तथा नखों और दांतों को क्षत विक्षत किया। जंगली कुत्तों द्वारा मांस निकाला, लाठियों का प्रहार किया, पत्थरों से मारा, दांतों से काटा, कुत्तों की तरह उन पर टूट पड़ते, फिर भी लाढनिवासियों के ऊपर भगवान महावीर ने तनिक भी क्रोध नहीं किया।२३ उनके पास ऐसी शक्ति थी कि वे क्षण भर में उनको नष्ट कर सकते थे, और शरीर वेदना को शान्त कर सकते थे। किन्तु उन्होंने अपनी शक्ति का उपयोग शरीर सुखों के लिये न करके आत्मसुखों की प्राप्ति में किया। शारीरिक कष्टों को कर्म निर्जरार्थ सहन करना ही उनका ध्येय था । उनका ध्यान शरीर पर नहीं था, आत्मा पर था। जिसका ध्यान आत्मा पर होता है; उसे शरीर से संबंधित कष्टों का भान नहीं होता। वह तो भेदविज्ञान की साधना में मस्त रहता है। महावीर की साधना देह की साधना नहीं थी, बल्कि आत्मध्यान की साधना थी, जिसके कारण उन्हें 'शूलपाणियक्ष' ने विभिन्न हाथी, पिशाच, सर्प आदि के रूप बनाकर आंख, कान, नासिका, सिर, दांत, नख, पीठ इन सप्त स्थानों में दिये गये भयंकर उपसर्गों से निर्मित वेदनाएं कुछ न कर सकीं। लोमहर्षक उपद्रवों की लम्बी श्रृंखलाओं को, सुमेरू की भांति ध्यान साधना में अड़िग रहकर समभाव की साधना से सहते रहे। शूलपाणियक्ष की राक्षसी प्रवृत्ति अन्त में ध्यानयोगी महावीर के सामने झुक गई।२४ चण्डकौशिक सर्प ने२५ भगवान महावीर पर विषैली फुंकार फेंकी, पैरों पर दंश पर दंश देता रहा; किन्तु वे तो ध्यान में स्थिर थे। पैरों की वेदनाओं की ओर महावीर का ध्यान नहीं था; ध्यान तो आत्मा की ओर था। प्रेमामृत से चण्डकौशिक के विष को शान्त कर दिया । रुधिर के स्थान पर दूध की धार बहने लगी। महावीर की ध्वनि
ध्यान का मूल्यांकन
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