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शरीर में स्थित नाड़ी तंत्र और ग्रन्थितंत्र का यथार्थ ज्ञान होने पर ही ध्यान साधक ध्यान प्रक्रिया द्वारा उन सबको प्रभावित करता है। यहाँ ध्यान का अर्थ चित्तवृत्ति को एकाग्र करना है। आंग्ल भाषा में चित्त को माइन्ड (मन) कहा है। शरीर शास्त्र में 'चित्त' को मस्तिष्क का एक विशेष भाग बताया है।
शरीर में आत्मा का निवास होता है। कर्मों के तरतम भाव के कारण आत्मशक्ति पर गाढ़, गाढतर, गाढ़तम आवरण आ जाते हैं। उन आवरणों को दूर करने के लिये ध्यान साधन है और मोक्ष साध्य है। साधन का माध्यम शरीर है। इसलिये आत्मा की अनन्तशक्ति को प्रगट करने के लिये साधना का माध्यम शरीर को माना है। औदारिक शरीर द्वारा ही कर्मों की निरावरण अवस्था होती है। इस अवस्था में ज्ञान के सारे आवरण दूर होते ही केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति करके साधक सिद्धत्व को पाता है।
शरीर पर ध्यान का प्रभाव :- ध्यान साधना का प्रयोजन स्थूल शरीर को भेदकर सूक्ष्म तक पहुंचना है। शरीर में प्रतिक्षण प्रतिपल परिवर्तन होता रहता है, एक पर्याय का उद्गम हुआ कि दूसरा पर्याय नष्ट होता है। यह उत्पाद व्यय का चक्र सतत चालू ही रहता है। इस चक्राकार पर्याय के स्रोतों का परीक्षण करना ही पर्याप्त नहीं है, इससे भी आगे बढ़ने के लिये यंत्र की सहायता उपयोगी नहीं होती। अतीन्द्रिय शक्ति को विकसित करने के लिये मानसिक शक्ति का विकास होना जरूरी है। आध्यात्मिक साधना के बल से सूक्ष्म शरीर तैजस और कार्मण का निरीक्षण करना है। इनका निरीक्षण करते-करते देव, मनुष्य और तिर्यच संबंधी कितने भी उपसर्ग आये तो भी समभाव की साधना में लीन रहना है। भगवान महावीर की संपूर्ण साधना पद्धति समभाव की ही साधना थी। उन्होंने साढ़े बारह वर्ष तक साधना की। उन साधनाकालीन जीवन में भगवान महावीर को अनेक उपसर्ग - परीषह सहने पड़े। साधना के प्रारंभ काल में और साधना के अन्तकाल में ग्वाले का ही उपसर्ग आया। कुर्मारगाम और छम्माणिगाम के बाहर ध्यानस्थ अवस्था में खड़े महावीर पर ग्वालों ने क्रमशः रस्सी-से मारा और कानों में खीले डाले, कहीं-कहीं कास नामक घास की शलाका का भी वर्णन आता है। इन हृदयद्रावक उपसर्ग के कारण शरीर में भयंकर वेदना हुई; परंतु भगवान महावीर स्वचिंतन में लीन थे। पूर्व कृत कर्मों का फल समभाव की साधना में लीन होकर भोगते रहे।८ भगवान महावीर ने जब प्रव्रज्या अंगीकार की उस समय शरीर पर सुगन्धित गोशीर्ष चन्दन आदि द्रव्यों के लगाने से मच्छर, कीट, पतंग आदि जहरीले जीव जन्तु शरीर को दंश देने लगे फिर भी महावीर का ध्यान शरीर की ओर नहीं था। वे शरीर की साधना नहीं कर रहे थे, मन को साध रहे थे, जिसके फलस्वरूप वे आत्म ध्यान में लीन थे। उन्हें सर्दी-गर्मी का भी ध्यान नहीं था। 'हलिदुग' नामक ग्राम के बाहर 'हलिदुग वृक्ष' के नीचे ध्यानस्थ मुद्रा में खड़े रहे।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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