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________________ मिलते हैं। स्वतंत्र नाड़ी मण्डल में बहुत से चक्र अथवा गंड रहते हैं। ये चक्र सुषुम्ना और शीर्षणी नाड़ी से नाड़ीतन्तुओं के द्वारा जुड़े रहते हैं। ये नाड़ी तन्तु गले, सिर और निचले भाग से निकलते हैं। इन चक्रों से दूसरे नाड़ी तन्तु भी निकलते हैं जो शरीर के विभिन्न भागों में फैले हुए हैं। हमारे शरीर में जो ग्रन्थियां हैं, उन्हें योगाचार्यों ने चक्र (सहस्रार, आज्ञा, विशुद्धि, अनाहत, मणिपूर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार चक्र) कहा है। शरीर शास्त्रज्ञ उसे ग्लैण्डस् (गिल्टियाँ) कहते हैं। वे दो प्रकार की हैं - प्रणालीयुक्त गिल्टियां और प्रणालीविहीन गिल्टियां। इनमें प्रणालीयुक्त गिल्टियां रसों को उत्पन्न करके शरीर की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं और प्रणालीविहीन गिल्टियां मानसिक उद्वेगों को घटाने-बढ़ाने में सहायक होती हैं जिनके निम्नलिखित नाम हैं- १) कण्ठमणि (चुल्लिका) इससे 'थायराक्सिन रस' निकलता है। २) उपचुल्लिका, ३) पीनियल, ४) पिट्युटरी और ५) एड्रिनल्स, इससे 'एड्रिनलीन रस' निकलता है। ये ग्रन्थियाँ बहिःस्रावी और अन्तःस्रावी नाम से प्रचलित है। अन्तःस्रावी ग्रन्थियों (प्रणालीहीन ग्रन्थियाँ) का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अधिक महत्व है। ये ग्रन्थियाँ सीधे अपने स्राव को रक्त में मिश्रित कर देती हैं। ये संवेगात्मक अथवा व्यक्तित्व ग्रन्थियों के नाम से प्रचलित हैं। ग्रन्थियों का शरीर पर प्रभाव :- ग्रन्थियों के विशेषतः तीन कार्य हैं - १) अंतःस्रावी रस (हारमोन्स) उत्पन्न करना, २) उत्पन्न रसों को रक्त में मिश्रित करना और ३) समस्त शरीर संस्थान पर नियंत्रण करना। हमारे शरीर में दो ग्रन्थियाँ, पिच्युटरी और एडिनल ऐसी हैं कि जिनके द्वारा शरीर पर तनाव पड़ता है। मानसिक आवेगों का प्रभाव इन दोनोंपर पड़ता है। मानसिक तनाव से प्रभावित होकर ये ग्रन्थियाँ दूषित हारमोन्स को रक्त में छोड़ती हैं जिसके फलस्वरूप शरीर में भाँति-भांति के रोग उत्पन्न होते हैं । जिसके कारण सिम्पेथेटिक और पेरासिम्पेथेटिक पर कोई नियंत्रण नहीं रह पाता।१६ इसलिये ये नाडियां अपनी उत्तेजित दशा में क्रोध, भय, घृणा आदि को प्रेरित करती हैं। इस मानसिक तनाव का प्रभाव मस्तिष्क के 'हाईपोथेलेमस 'विभाग पर सर्वप्रथम पड़ता है, जिसके फलस्वरूप पिच्युटरी उत्तेजित होती है। मानसिक तनाव बढता है। इन तनावों को योगप्रक्रिया से ही शान्त किया जा सकता है। योगप्रकिया में शरीर और मन दोनों ही स्वस्थ होने चाहिये । इसीलिये शरीरतन्त्र में स्वतंत्र नाडी-मण्डल का महत्वपूर्ण स्थान है। स्वतंत्र नाडी - मण्डल के तीन विभाग हैं।७- १) शीर्षणी, २) मध्यम और ३) अनुत्रिका। शीर्षणी भाग अपने आप होने वाली क्रिया आँख के ताल-लेन्स ,पतली का अंधेरे एवं प्रकाश में छोटी बड़ी होना आदि पर नियंत्रण करती है। अनुत्रिका सुषुम्ना के निचले छोर के समीप स्थित है। मलमूत्र त्याग में यह कार्यशील रहती है। कामभाव की उत्तेजना में भी यह काम करती है। मध्यम भाग इन दोनों भागों से विपरीत कार्य करता है। ध्यान का मूल्यांकन ४५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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