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________________ तृण समूह को एकत्रित किया जाता है; वैसे ही संघातन नामकर्म के द्वारा औदारिकादि शरीर पुद्गलों को एकत्रित किया जाता है। ७ शरीर योग्य पुद्गलों को संघातन नामकर्म समीप लाता है और उसके बाद बंधन नामकर्म उन्हें उन-उन शरीरों से संबद्ध कराता है। शरीर नामकर्म के उदय से ही पांचों शरीरों का निर्माण होता है। जैनागम में छह पर्याप्तियों का वर्णन है। उनमें से द्वितीय पर्याप्ति का नाम शरीर पर्याप्ति है। प्रथम आहार लिया जाता है; बाद में शरीर बांधा जाता है। शरीर के बिना इन्द्रियाँ और श्वासोश्वास की क्रिया नहीं हो सकती। इसलिये ध्यान साधना करने वाले साधक को शरीर तंत्र का ज्ञान होना चाहिये। शरीर भी एक बड़ा भारी यंत्र है। उसमें हड्डियों की रचना कैसे होती है तथा मनुष्यादि में जो शारीरिक विभिन्नताएँ और आकृतियों में विविधता दिखाई देती है; उसका क्या कारण है? भगवान महावीर मनोविज्ञान और शरीरविज्ञान के बड़े भारी ज्ञाता थे। उन्होंने अपने केवलज्ञान के आलोक में देखकर शरीर विज्ञान को स्पष्ट किया कि "जिस नाम कर्म के उदय से हड्डियों का आपस में जुड़ जाना अथवा हड्डियों की रचना विशेष को संहनन नाम कर्म कहते हैं।" औदारिक शरीर के अतिरिक्त अन्य वैक्रिय आदि शरीरों में हड्डियां नहीं होती हैं। अतः संहनन नाम कर्म का उदय औदारिक शरीर में ही होता है। संहनन नाम कर्म के छह भेद हैं८ - १) वज्र ऋषभ नाराच, २) ऋषभ नाराच, ३) नाराच, ४) अर्द्धनाराच, ५) कीलिका और ६) छेवट्ट । प्रत्येक के साथ संहनन नाम कर्म जोड़ लेना चाहिये। इन छह संहननों में प्रथम के तीन संहनन ध्यान के लिये योग्य हैं। अधिकतः वज्र ऋषभ नाराच संहनन वाले ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान की साधना कर सकते हैं। वज्र, ऋषभ और नाराच इन तीन शब्दों के योग से निष्पन्न वज्र ऋषभ नाराच पद है। इनमें वज्र का अर्थ कीली, ऋषभ का अर्थ - वेष्टन-पट्टी और नाराच का अर्थ दोनों ओर मर्कटबंध है। जिस संहनन में दोनों तरफ से मर्कट बंध से बंधी हुई दो हड्डियों पर तीसरी हड्डी का वेष्टन (पट्ट) हो और इन तीनों हड्डियों को भेदने वाली हड्डी की कील लगी हुई हो, उसे वज्र ऋषभ नाराच कहते हैं। जिस कर्म के उदय से हड्डियों की ऐसी रचना - विशेष हो, उसे वज्र ऋषभ नाराच संहनन नामकर्म कहते हैं। शरीर के आकार को संस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से संस्थान की प्राप्ति होती हो, उसे संस्थान नामकर्म कहते हैं। उनके छह प्रकार हैं१) समचतुरस्र - संस्थान नाम कर्म, २) न्यग्रोध- परिमंडल संस्थान नामकर्म, ३) सादिसंस्थान नाम कर्म, ४) कुब्ज संस्थान नामकर्म, ५) वामन - संस्थान नामकर्म और ६) हुंड-संस्थान नामकर्म। इनमें सम, चतुः, अम्र, इन तीन शब्दों से निष्पन्न समचतुरस्र पद में सम का अर्थ समान, चतुः का अर्थ चार और अम्र का अर्थ कोण होता है। पालथी मारकर बैठने से जिस शरीर के चारों कोण समान हो, यानी आसन और कपाल का अन्तर, ध्यान का मूल्यांकन Jain Education International For Private & Personal Use Only - ४५३ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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