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________________ औदारिक शरीर को प्रथम ग्रहण किया है। आगे-आगे सूक्ष्मता दिखाने के हेतु से वैक्रियादि शरीर का क्रम है। __ स्थूल और सूक्ष्म भाव की व्याख्यानुसार उत्तर-उत्तर शरीर का आरम्भक द्रव्य पूर्वपूर्व शरीर की अपेक्षा परिमाण में अधिक होता है। उन सबका परिमाण एक सा नहीं होता। परमाणुओं से बने हुए जिन स्कन्धों से शरीर का निर्माण होता है वे ही स्कन्ध शरीर के आरम्भक द्रव्य हैं। जब तक परमाणु अलग-अलग रहते हैं, तब तक शरीर नहीं बन सकता। परमाणुपुंज के स्कन्ध से ही शरीर बनता है। वे स्कन्ध भी अनन्त परमाणुओं के बने हुए होते हैं। औदारिक शरीर के आरम्भक स्कन्धों से वैक्रिय शरीर के आरम्भक स्कन्ध असंख्यात गुणा होते हैं। यही अधिकता वैक्रिय और आहारक शरीर के स्कन्धगत परमाणुओं की अनंत संख्या में समझना चाहिये । आहारक स्कन्धगत परमाणुओं की अनंत संख्या से तैजस के स्कन्धगत परमाणुओं की अनंत संख्या अनंतगुण होती है। इसी तरह तैजस से कार्मण के स्कन्धगत परमाणु भी अनन्तगुण अधिक है। इससे सिद्ध है कि पूर्वपूर्व शरीर की अपेक्षा उत्तर-उत्तर शरीर के आरम्भक द्रव्य अधिक-अधिक होते हैं। फिर भी परिणमन की विचित्रता के कारण उत्तर-उत्तर शरीर निबिड, निबिडतर और निबिडतम बनते जाते हैं तथा सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम कहलाते हैं। सूक्ष्म शरीर के सहारे ही स्थूल शरीर बनते हैं। ___ एक साथ एक संसारी जीव में कम-से-कम दो और अधिक-से-अधिक चार शरीर होते हैं। पांच कभी नहीं होते हैं। जब दो होते हैं तब तैजस और कार्मण कहलाते हैं, क्योंकि ये दोनों सभी संसारी जीवों के होते हैं। यह स्थिति विग्रहगति में पूर्व शरीर को छोड़कर दूसरी गति के शरीर को प्राप्त करने के लिये होने वाली गति के अंतराल में पायी जाती है। क्योंकि उस समय अन्य कोई भी शरीर नहीं होता है। जब तीन होते हैं: तब तैजस कार्मण और औदारिक या तैजस कार्मण और वैक्रिया पहला प्रकार मनुष्य तिर्यंचों में और दूसरा प्रकार देव नारकों में जन्म से लेकर मरण पर्यन्त पाया जाता है। जब चार होते हैं, तब तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रिय अथवा तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारका५ पहला विकल्प वैक्रिय लब्धि के समय कुछ मनुष्य और तिर्यंचों में पाया जाता है। दूसरा विकल्प आहारक लब्धि के प्रयोग के समय चतुर्दश पूर्वधारी मुनियों में होना संभव है। किन्तु वैक्रिय लब्धि और आहारक लब्धि का प्रयोग एक साथ संभव न होने से पांचों शरीर एक साथ किसी के भी नहीं होते हैं। प्रथम तीन शरीरों में ही अंगादि होते हैं। शेष तैजस कार्मण शरीरों का कोई संस्थान-आकार नहीं होता है। ___बंधन नामकर्म के द्वारा लाख, गोंद आदि चिकने पदार्थों की भांति बंधने वाले औदारिकादि शरीरों के पुद्गलों का आपस में संबंध कराया जाता है। जैसे दंतालीद्वारा ४५२ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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