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वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण। इनमें से तैजस और कार्मण शरीर सब संसारी जीवों के होते हैं और आत्मा के साथ उनका अनादि संबंध है। ये दोनों शरीर लोक में कहीं भी प्रतिघात नहीं पाते हैं, वज्र - जैसी कठोर वस्तु भी इन्हें प्रवेश करने से रोक नहीं सकती है। क्योंकि ये अत्यन्त सूक्ष्म हैं और सूक्ष्म वस्तु बिना रुकावट के सर्वत्र प्रवेश पा सकती है, लोहपिण्डाग्नि की तरह। जो विशेष नामकर्म के उदय से प्राप्त होकर गलते हैं: वे शरीर हैं। इन पांचों शरीरों का स्वरूप इस प्रकार है - जिस शरीर में हाड, मांस, रुधिर, त्वचा है एवं जिनका सड़न-गलन-पड़न का स्वभाव है, वह औदारिक शरीर है। यह शरीर मनुष्य और तिर्यंच गति के जीव को होता है। उदार और स्थूल ये दोनों एक ही पर्यायवाची शब्द हैं। प्रधान पुद्गलों से तीर्थकरादि के शरीर बनते हैं। इस शरीर से ही साधना की जाती है। अतः उदार और स्थूल प्रयोजन वाला शरीर ही औदारिक शरीर है। जिस शरीर में हाड़, मांस, रुधिर, त्वचा एवं सड़न-गलन-पड़न नहीं होता है; सिर्फ अणिमादि आठ सिद्धिओं के बल से छोटे बड़े आकार करना ही (विक्रिया करना) जिसका प्रयोजन है, वह वैक्रिय शरीर है। यह शरीर देवता और नरक के जीवों को होता है। वैक्रियशरीर उपपात जन्म से पैदा होता है और लब्धि से भी पैदा होता है, किन्तु औदारिक शरीर सम्मूर्च्छन जन्म और गर्भ जन्म से पैदा होता है। जो शरीर सिर्फ चतुर्दशपूर्वधर मुनि के द्वारा सूक्ष्म तत्त्वज्ञान और असंयम परिहार के लिये जिसकी रचना की जाती है वह आहारक शरीर है। जो शरीर तेजोमय होने से खाद्य आहार के परिपाक का हेतु तथा दीप्ति का कारण होता है, वह तैजस शरीर है। कर्मों के समूह को कार्मण शरीर कहते हैं। यद्यपि सब शरीर कर्म के निमित्त से ही होते हैं, फिर भी रूदिगत विशिष्ट शरीर को कार्मण शरीर कहते हैं। मिट्टी के पिण्ड से उत्पन्न घट, घटी, सकोरा आदि में संज्ञा, लक्षण, आकार आदि की दृष्टि से भेद हैं; वैसे ही औदारिकादि शरीर कर्मकृत होने पर भी लक्षण, आकार और निमित्तादि के कारण परस्पर भिन्न हैं। कार्मण शरीर से ही औदारिकादि शरीर उत्पन्न होते हैं। इनमें कार्य कारण की अपेक्षा होने से कार्मण और औदारिकादि शरीर भिन्न हैं। गीले गुड पर धूलि जम जाती है. वैसे ही कार्मण शरीर पर औदारिकादि शरीरों के योग्य परमाणु, जिन्हें विस्त्रसोपचय कहते हैं,- आकार जम जाते हैं। इस दृष्टि से भी कार्मण और औदारिकादि भिन्न हैं। दीपक की भांति कार्मण शरीर औदारिकादि का निमित्त है और अपने उत्तर कार्मण का भी। इस प्रकार कार्मण शरीर निर्निमित्त होने से असत् नहीं हो सकता। उसमें प्रति समय उपचय-अपचय होता रहता है। उसका अंशतः विशरण सिद्ध है; इसलिये वह शरीर है। कार्मण सबका आधार और निमित्त होने से उसका प्रथम ग्रहण होना चाहिए था, किन्तु वह सक्ष्य है और औदारिकादि स्थूल हैं। पांच शरीर में सबसे अधिक स्थूल औदारिक शरीर है, वैक्रिय उससे सूक्ष्म है, आहारक वैक्रिय से सूक्ष्म है और आहारक से तैजस सूक्ष्म है तथा तैजस से कार्मण सूक्ष्मतर सूक्ष्मतम है। अत्यन्त स्थूल और इन्द्रिय ग्राह्य होने से ध्यान का मूल्यांकन
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