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अध्याय
ध्यान का मूल्यांकन
ध्यान का आध्यात्मिक मूल्यांकन अंततः शाश्वत सुख है। किंतु साथ ही साथ ध्यान से शारीरिक और मानसिक विकास उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। क्योंकि शुद्धोपयोग की प्राप्ति चित्त-समाधि से प्राप्त होती है। चित्त समाधि - मन शान्ति चित्त शुद्धि से होती है। चित्त शुद्धि शरीर और मन के स्वस्थ होने पर होती है। तन के स्वस्थ रहने से मन स्वस्थ रहता ही है और मन स्वस्थ रहा तो आत्मोपलब्धि की सिद्धि मिलती ही है। आत्मोपलब्धि = शुद्ध आत्मा का स्वरूप। आत्मा का निज स्वरूप ध्यान के बिना निखर नहीं सकता। कर्मरज को जीव से सर्वथा पृथक् करने की शक्ति ध्यान में ही है। कर्मसंयोग से संसार वृद्धि और कर्मवियोग से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जैसे मैले कुचैले वस्त्र को पानी से, लोहे को अग्नि से और कीचड़ का शोधन सूर्य से किया जाता है, वैसे ही ध्यान रूपी पानी, अग्नि, सूर्य से कर्म मलादि का शोधन किया जाता है।' ध्यानाग्नि ही कर्म इन्धन को जलाने में समर्थ है। यह सारी प्रक्रिया आध्यात्मिक है। इसके अतिरिक्त मानसिक निर्मलता और शारीरिक स्वस्थता में भी ध्यान की प्रक्रिया का विशेष योगदान है। अतः ध्यान की प्रक्रिया से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास होता है। १) ध्यान से शारीरिक लाभ
शरीर की स्थिरता :- शरीर की स्थिरता से चित्त की निर्मलता बढ़ती है। चित्त शुद्धि का सबसे बड़ा मंत्र है - शरीर की स्थिरता, और चित्त की अशुद्धि का कारण है शरीर की चंचलता। शरीर में व्याधि उत्पन्न होने से वैद्य की शरण ली जाती है। वैद्य उसके शरीर की जांच मलमूत्र, नाखून के रंग, नाड़ी की गति, श्वास की गति, मुंह का स्वाद, जिह्वा एवं रक्त परीक्षण आदि से करके रोग का निर्णय लेता है। वैसे ही ध्यानयोगी साधक ध्यान के विविध प्रयोगों से आत्मस्वरूप का ज्ञान करते हैं। इसलिए ध्यान साधक को शरीरसंरचना एवं उसकी क्रियाविधि का ज्ञाता होना चाहिए।
साधना का माध्यम 'शरीर' :- जन्म होना ही शरीर का प्रारंभ है। जीव के क्रिया करने के साधन को शरीर कहते हैं। जैनागम में शरीर के पांच प्रकार बताये हैं३-औदारिक,
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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