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दोनों घुटनों का अन्तर, दाहिने कंधे और बांये जानु का अन्तर, बाये कंधे और दाहिने जानु का अन्तर समान हों, उसे समचतुरस्र कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे संस्थान की प्राप्ति होती है, वह समचतुरस्र संस्थान नामकर्म कहलाता है। ऐसी आकृति में ही साधक ध्यान कर सकता है। अतः ध्यान प्रक्रिया में शरीर तज्ञ होना जरूरी है। शरीर का ज्ञाता ही उक्कुडुया, गोदोहिया, समपायपुया, पलियंका, अद्धपलियंका आदि विभिन्न आसनों० द्वारा शरीर की चंचलता को स्थिर करके मन को एक वस्तु पर स्थिर करता है। जैनेतर ग्रन्थों में भी शरीर के तीन प्रकार मिलते हैं। १. स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इससे सिद्ध हुआ कि साधना का माध्यम शरीर ही है। क्योंकि इसी औदारिक शरीर से केवलज्ञान की प्राप्ति एवं अरिहंत सिद्ध बना जा सकता है।
विज्ञान की दृष्टि से शरीर का महत्व :- शरीरशास्त्र की दृष्टि से भी औदारिक शरीर में ही नाड़ी तंत्र, ग्रंथि-तंत्र, विद्युत् तंत्र, श्वसन तंत्र, पाचन तंत्र, रक्त संचार तंत्र आदि अनेक तंत्रों का भिन्न-भिन्न कार्य प्रणालियों से संचालन होता रहता है। शरीर में सभी तंत्रों का महत्व है। किन्तु नाड़ी तंत्र और ग्रंथि तंत्र का अधिक महत्व है। ये शरीर के संचालक और संदेशवाहक हैं। इसलिए ध्यान साधक को शरीर ज्ञाता होना चाहिये। जैसे तार यंत्र शहर के विभिन्न भागों को एक दूसरे से मिलाने का कार्य करता है, वैसे ही नाड़ी तंत्र भी शरीर के विभिन्न भागों से लेन देन का कार्य करता है। नाड़ी तंत्र के तीन विभाग हैं।२- १) त्वक् नाड़ी-मण्डल, २) केन्द्रीय नाड़ी-मण्डल, और ३) स्वतन्त्र नाड़ीमण्डला त्वक् नाड़ी-मण्डल दो प्रकार का कार्य संचालन करता है, जिनके नाम हैं- १) अन्तर्गामी (ज्ञानवाही) और २) निर्गामी (गतिवाही अथवा क्रियावाही)। इन दोनों का कार्य बाह्य उत्तेजना को ग्रहण करना और शरीर में कार्य करने वाली पेशियों का नियंत्रण करना है। त्वक् नाड़ी-मण्डल लेन-देन की क्रिया में सतत कार्यशील रहता है। ____संपूर्ण नाड़ी-तंत्र नाड़ियों का बना होता है। इनमें कुछ नाड़ियां छोटी और कुछ बड़ी होती हैं। ज्ञानवाही और क्रियावाही कार्यप्रणाली से वे अपना कार्य करती रहती हैं। नाड़ी के तीन विभाग किये गये हैं। ३. १) मध्य भाग, जिसे नाड़ी-कोषाणु कहते हैं। २) नाड़ी का छोर, जिसे अक्षतन्तु कहते हैं। ३) नाड़ी का दूसरा छोर, जिसे माहीतन्तु (डेड्राइट्स) कहते हैं। किसी भी प्रकार की उत्तेजना को ग्राहीतन्तु पहले पहल ग्रहण करके नाड़ीकोषाणु पर पहुंचती है और अक्षतन्तु द्वारा बाहर प्रवाहित होती है। इस प्रकार प्रत्येक नाड़ी में हर समय उत्तेजना का ग्रहण ग्राहीतन्तु द्वारा होता है और उसका प्रवाह बाहर की ओर अक्षतन्तु द्वारा होता है। ग्राहीतन्तु अक्षतन्तु से छोटे होते हैं तथा देखने में वृक्ष के ऊपरी भाग की तरह दिखाई देते हैं। अक्षतन्तु बड़े होते हैं। इसमें इतने फुक्से नहीं होते जितने कि ग्राहीतन्तु में होते हैं। जहां दो नाड़ियां एक दूसरे से (अक्षतन्तु और ग्राहीतन्तु) मिलती हैं,
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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