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________________ प्राप्त होना 'भावतारा ध्यान' है। बारहवीं पडिमा जैसे शुष्क पुद्गल पर अनिमेष दृष्टि रखना 'परम तारा ध्यान' है। वज्रलेप आदि द्रव्य से वस्तुओं का जो परस्पर गाद संयोग होता है वह 'द्रव्य लय' है और 'अरिहंत, सिद्ध, साधु, तथा केवलीप्ररूपित धर्म - इन चार का शरण अंगीकार करने से जो चित्त का निवेश होता है, वह 'भावलय' है। आत्मा से आत्मा में लीन होना ही 'परमलय ध्यान' है। जिनसे घासादि को कापा जाता है वह 'द्रव्य लव' है और शुक्लध्यान एवं अनुष्ठान द्वारा कर्मों को छेदा जाना वह 'भाव लव' है। उपशमश्रेणि और श्रपक श्रेणि 'परमलव ध्यान' है। उपकरणादि की मर्यादा 'द्रव्यमात्रा' है और समवसरण में स्थित सिंहासन पर विराजमान धर्मोपदेशना देते हुए तीर्थकर समान स्वयं की आत्मा को देखना 'भावमात्रा' ध्यान है। चौबीस वलयों से वेष्टित स्वयं की आत्मा का ध्यान, वह 'परममात्रा' ध्यान है। चौबीस वलय इस प्रकार हैं १. 'शुभाक्षर वलय' है, जिसमें धर्मध्यान के चार भेदों के २३ अक्षर और शुक्लध्यान के प्रथम भेद के १० अक्षर, कुल ३३ अक्षरों का न्यास किया जाता है। २. 'अनक्षरवलय' है। आगम ग्रन्थों में अनक्षर श्रुतज्ञान 'ऊससिय' आदि गाथाओं के अक्षरों को वलय में स्थापित किया जाता है। ३. 'परमाक्षर वलय' है। 'ऊं, अर्ह, अॅरि हं तें सिंद्ध, ऑ ये रि य, उँव ज्झॉ यें, सॉ हूँ नमः' इन अक्षरों का न्यास करने में आता है। ४. 'अनक्षर वलय' में 'अ' से लेकर 'ह' तक ४९ अक्षर, वैसे ही ईषत्स्सृष्टतर 'य, ल, व,' इन अक्षरों को मिलाने से ५२ अक्षरों का न्यास किया जाता है। ५. 'ध्यान, परमध्यान' आदि चौबीस भेद में से प्रथम दो भेद प्रथम शुभाक्षरवलय में आते हैं और शेष २२ भेदों को इसमें न्यास किया जाता है। ६. 'सकलीकरणवलय' में पृथ्वीमंडल, अपमंडल, तेजोमंडल, वायुमंडल और आकाशमंडल का स्वरूप है। ७. '२४ तीर्थंकरों की माताओं का वलय' इसमें वे अपने-अपने गोद में तीर्थंकर को बिठाकर परस्पर एक दूसरों को देखने में व्यग्र हैं। ८. २४ तीर्थंकरों के पिताओं का वलय। ९. इस वलय में भूत, भविष्य और वर्तमान कालीन चौबीस तीर्थकरों के नाम अक्षरों की स्थापना की जाती है। १०. इस वलय में रोहिणी आदि १६ विद्यादेवियों का न्यास किया जाता है। ११. इस वलय में २८ नक्षत्रों के नामाक्षरों की स्थापना की जाती है। ४१८ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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