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________________ छद्मस्थ ध्यान के ४४२३६८ भेद हैं। मूलतः ध्यान के चौबीस भेद है२०२ १. ध्यान, २. परम ध्यान, ३. शून्य, ४. परमशून्य, ५. कला, ६. परमकला, ७. ज्योति, ८. परम ज्योति, ९. बिन्दु, १०. परमबिन्दु, ११. नाद, १२. परमनाद, १३. तारा, १४. परमतारा, १५. लय, १६. परमलय, १७. लव, १८. परम लव, १९. मात्रा, २०. परममात्रा, २१. पद, २२. परमपद, २३. सिद्धि, २४. परमसिद्धि। इनका स्वरूप२०३. 'स्थिर' अध्यवसाय को ध्यान कहते हैं। इसके दो भेद हैं - द्रव्य और भाव। द्रव्य ध्यान में आर्त रौद्र ध्यान और भाव में धर्मध्यान का वर्णन है। 'परम ध्यान में शुक्लध्यान का प्रथम भेद 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' ध्यान का कथन है। 'शून्य ध्यान में चिन्तन का अभाव होता है। इसके दो भेद हैं- द्रव्य और भाव। द्रव्य ध्यान में क्षिप्त, दीप्त, उन्मत्त, राग, स्नेह, अतिभय, अव्यक्त, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धिं ये बारह भेद आते हैं और भाव शून्य ध्यान में चित्त व्यापार का सर्वथा अभाव है। 'परम शून्य' ध्यान में प्रथम चित्त को तीन लोक के विषय में व्याप्त करके, तदनन्तर उसमें से किसी एक वस्तु में मन को लगाया जाता है। 'कला ध्यान' के दो भेद हैं। द्रव्य और भावा नाड़ी दबाकर मल्लादि को रोकना द्रव्य कला है। अत्यंत अभ्यास द्वारा देश, काल, एवं करण आदि की अपेक्षा बिना प्रयत्न स्वयं ही शरीर को क्रियारहित करता है और दूसरों के द्वारा उतारता है, उसे भाव कला कहते हैं, यथा आचार्य पुष्पभूति की कला (समाधि) को मुनि पुष्पमित्र ने जागृत की थी। तीव्र अभ्यास के द्वारा अपने आप समाधि उतर जाय वह परम ध्यान है। यथा चौदह पूर्वधरों को 'महाप्राण' ध्यान में होता है। 'ज्योतिध्यान' भी दो प्रकार का है। द्रव्य और भाव। चन्द्र, सूर्य, मणि, प्रदीप, बिजली आदि द्रव्य ज्योति हैं और अभ्यास द्वारा जिनका मन लीन बन गया है ऐसे मनुष्य को भूत, वर्तमान, भविष्य काल के बाह्य वस्तुओं को सूचित करनेवाला विषयक प्रकाश जिससे उत्पन्न हो उसे भाव ज्योति कहते हैं। 'परम ज्योति' ध्यान में चिरकाल तक स्थिर रहनेवाला बिना प्रयत्न से उत्पन्न समाधि अवस्था में जो ध्यान उत्पन्न होता है वह। जलादि बिन्दु 'द्रव्य से बिंदु' है और जिस परिणाम विशेष से आत्मा पर चढ़े हुए कर्मदलिक खिर जाय ऐसे अध्यवसाय विशेष 'भाव बिन्दुध्यान' है। सम्यक्त्व, देश विरति, सर्वविरति, अनंतानुबंधी चतुष्क, का विसंयोजन, सप्तक का क्षय, उपशामक अवस्था, उपशांतमोहावस्था, मोहक्षपकावस्था और क्षीणमोहावस्था प्राप्त होते समय जो गुणश्रेणियां होती हैं उन्हें 'परम बिन्दु' ध्यान समझना। इन गुणश्रेणियों में अंतिम की दो गुणश्रेणी केवलज्ञानी को होती है और शेष सभी छद्यस्थ को। क्षुधा से पीड़ित मनुष्य कान में अंगुली डालकर जो ध्वनि करता है वह द्रव्य नाद है और अपने ही शरीर में उत्पन्न वाजिंत्र जैसे नाद का श्रवण करता है वह 'भावनाद ध्यान' है। भिन्न-भिन्न वार्जित्रों के नाद भिन्न-भिन्न ध्वनि द्वारा सुनाई देते हैं वैसे ही विभिन्न शब्दों का नाद 'परमनाद' है। विवाहादि प्रसंग में आंखकीकी न्याय से वर वधू का परस्पर तारा मैत्रक-तारा मेलक होना 'द्रव्य तारा ध्यान' है और कायोत्सर्ग में निश्चल दृष्टि ध्यान के विविध प्रकार ४१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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