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प्रकृतियां हैं, उनमें से शुभ पकृतियों का उदय गुड़, खांड, शक्कर और अमृत की तरह मधुर होता है और अशुभ प्रकृतियों का विपाक लता, दारु, अस्थि और शैल की तरह कठोर होता है। कर्म बंध के प्रकार चार हैं। किस-किस गति तथा किस-किस योनि में जीवों के भिन्नभिन्न प्रकृतियों का बंध, उदय-उदीरणा और सत्ता होती है। इस प्रकार आठ कर्मों के शुभाशुभ अनुभाग का विचार करना विपाकविचय धर्मध्यान है। यह शरीर अशुचिमय है। कर्मबंध का कारण है, अस्थिर है, अनित्य है, वात पित्त और कफ के आधार है, सप्त धातुमय है, मलमूत्रादि से युक्त है, इसमें रति करना नरक निगोद का कारण है। इस प्रकार वैराग्य का चिन्तन करना विरागविचप धर्मध्यान है। सचित्त, अचित्त, सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संकृत, विकृत, संकृतविकृत ये नौ योनियां हैं। इन योनियों में गर्भ, उपपात, और सम्मूर्छन जन्म द्वारा नाना योनियों में जरायुज, अण्डज, आदि नाना प्रकार के जन्मों को धारण करता हुआ एक भव से अन्य भव में चार प्रकार की गति - इषुगति, पाणिमुक्तागति, लांगलिकागति, और गोमूत्रिका गति, इसके अतिरिक्त
और भी दो गति हैं। ऋजुगति और वक्रगति - इन गतियों के द्वारा जीव ने संसार में परिभ्रमण करते हुए अनन्तानन्त भव परिवर्तन किये हैं, ऐसा चिन्तन करना भव विचय धर्मध्यान है। इसमें बताई गई इषुगति बाण की तरह सीधी होती है, इसमें एक समय लगता है। यह संसारी और सिद्ध दोनों प्रकार के जीवों को होती है। शेष तीन गतियाँ संसारी जीवों को ही होती हैं। पाणिमुक्ता गति एक मोड़वाली होती है, इसमें दो समय लगते हैं। लांगलिका गति भी दो मोड़वाली है, इसमें तीन समय लगते हैं। गोमूत्रिका गति तीन मोड़वाली है, जिसमें चार समय लगते हैं। ऋजुगति में सीधे ही अपने गन्तव्य स्थान को पाते हैं और वक्रगति में घुमाव होता है जिसमें अधिक से अधिक चार समय लगते हैं। इस प्रकार संसार में भटकनेवाले जीवों में गुणों का विकास नहीं होता, भटकना निरर्थक है। ऐसा विचार करना भव विचय धर्मध्यान है। अनित्य, अशरण आदि बारह प्रकार की वैराग्य भावनाओं का चिन्तन तथा लोक के आकार का चिन्तन ही संस्थान विचय धर्मध्यान है। अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान छद्मस्थ जीवों को नहीं हो सकता है। अतः सर्वज्ञ कथित तत्त्वों पर चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। आगम के किसी विवादास्पद विषय को तर्क की कसौटी पर कसकर स्याद्वाद नयादि द्वारा उसका निर्धारण करना हेतुविचय धर्मध्यान है। इन सभी प्रकार के धर्मध्यान पर पीछे विस्तृत से वर्णन किया गया है। अतः वहाँ देखें।
ध्यान के ८० भेद : आचार्य हरिभद्रसूरि आदि ग्रन्थकारों ने धर्म ध्यान के अस्सी भेद बताये हैं२०१ 'स्थान, वर्ण, अर्थ, आलंबन, और अनालंबन' इन पांच योगों को 'इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता, सिद्धि' इन चार के साथ गुणा करने से ध्यान के बीस भेद होते हैं। 'अनुकंपा, निर्वेद, संवेग, और प्रशम' ये चार इच्छानुयोग के कार्य हैं। पूर्व कथित बीस भेदों का इन चार के साथ गुणा करने से धर्मध्यान के अस्सी भेद होते हैं। ५४४४४८० ४१६
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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