SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 476
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ." . .. - .. - था। विदेह क्षेत्र में स्थित श्री सीमंधर युगमंधर आदि तीर्थंकरों के समवसरण का प्रमाण बारह योजन था। ऐसे देवों द्वारा निर्मित समोसरण (समवसरण) के मध्य में तीसरे सिंहासन के ऊपर चार अंगुल के अन्तराल से विराजमान अर्हन्त का ध्यान करना चाहिये।९४ जो चार घातिकों को क्षय करने वाले होते हैं। रूपस्थ ध्यान दो प्रकार का है - स्वगत और परगत। आत्मा का ध्यान करना स्वगत है और अर्हन्त का ध्यान करना परगत है। १९५ (४) रूपातीत ध्यान का स्वरूप : वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से रहित, केवल ज्ञान-दर्शन -चारित्र गुण सम्पन्न, निराकार, चिदानन्द स्वरूप निरंजन सिद्ध परमात्मा का ध्यान रूपातीत ध्यान कहलाता है। १९६ इस ध्यानावस्था में पहले अपने गुणों का स्मरण करें, बाद में सिद्धों के गुणों का विचार करें। निरंजन निराकार सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का आलंबन लेकर उनका सतत ध्यान करनेवाला योगी ग्राह्य ग्राहक भाव (ध्येय और ध्याता के भाव) रहित होकर तन्मयता (सिद्ध स्वरूपता) प्राप्त कर लेता है। सिद्ध परमात्मा की शरण से योगी जब तन्मय बन जाता है, तब ध्याता और ध्येय इन दोनों के अभाव में ध्येय रूप सिद्ध परमात्मा के साथ उसकी एकरूपता हो जाती है। १९७ रूपातीत योगी के मन का सिद्ध परमात्मा के साथ एकीकरण हो जाना इसे ही समरसी भाव कहते हैं। १९८ आत्मा अभेद रूप से परमात्मा में लीन हो जाती है। यही समरसी समाधि रूप ध्यान है। ध्यान के दस भेद : कतिपय ग्रन्थों में धर्मध्यान के दस भेद मिलते हैं- १९९ १. अपायविचय, २. उपायविचय, ३. जीवविचय, ४. अजीवविचय, ५. विपाकविचय ६. विरागविचय, ७. भवविचय, ८. संस्थानविचय, ९. आज्ञाविचय और १०. हेतुविचय। इनका स्वरूप२०० - इस अनादि संसार में परिभ्रमण करने वाले जीवों ने नाना भांति दुःखों को उठाया है, उनसे कैसे मुक्ति हो? मन, वचन, काय की विशिष्ट प्रवृत्ति से संचित पापों की शुद्धि कैसे हो? तथा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र में ग्रसित जीवों का उद्धार कैसे हो? इस प्रकार का विचार करना अपायविचय धर्मध्यान है। मन वचन काय की शुभ प्रवृत्ति कैसे हो तथा दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से जीव सम्यग्दर्शनादि गुणों से विमुख है तो उनका उद्धार कैसे हो? ऐसा चिन्तन करना उपायविचय धर्मध्यान है। जीव का लक्षण उपयोग है, द्रव्य दृष्टि से जीव अनादि और अनन्त है, असंख्यातप्रदेशी है, अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता तथा भोक्ता है, सूक्ष्म एवं अमूर्त है, देहप्रमाण वाला है, आत्मप्रदेशों के संकोच विस्तार करनेवाला है, व्याधातरहित है, ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है, अनादि काल से बंधा हुआ है, कमों के क्षय होने पर मुक्त हो जाता है। इस प्रकार जीव के स्वरूप का चिन्तन करना जीवविचय धर्मध्यान है। जीव से विलक्षण पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश इन अचेतन द्रव्यों की अनन्त पर्यायों के स्वरूप का चिन्तन करना अजीवविचय धर्मध्यान है। आठों कर्मों की बहुत सी उत्तर ध्यान के विविध प्रकार ४१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy