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________________ अष्टाक्षरी विद्या का ध्यान योगी को सतत करना चाहिये, जिससे उपद्रव शांत होता है। अष्ट पत्र वाले कमल में आत्मा के स्वरूप का ध्यान करें। 'ॐ नमो अरिहंताणं' इस मंत्र को आठ पत्र पर स्थापित करें। प्रथम पंखुडी की गणना पूर्व दिशा से प्रारंभ करें। उसमें ॐ स्थापित करें। बाद में यथाक्रम से शेष सात अक्षर स्थापित करें। इस अनुक्रम से शेष दिशाविदिशाओं में स्थापना करके समस्त उपद्रव शांति हेतु योगी इस अष्टाक्षरी विद्या का आठ दिन तक ध्यान करें। आठ दिन के बाद कमल में स्थित अष्टाक्षरी विद्या के इन आठों वर्गों के क्रमशः दर्शन होंगे। ध्यान में उपद्रव करने वाले भयानक सिंह, हाथी, राक्षस, भूत, प्रेत, व्यंतर, आदि का उपद्रव शांत हो जाता है। इहलौकिक फलाभिलाषियों को 'नमो अरिहंताणं' का ध्यान करना चाहिये। और मोक्षसुखाभिलाषी मुमुक्षुओं को 'ॐ नमो अरिहंताणं' का ध्यान करना चाहिये। १९० चार पत्र वाले कमल में मध्यकर्णिका पर क्रमशः 'असि आ उ सा' अक्षर मंत्र का ध्यान करना चाहिये जिससे ध्याता के सर्व कर्मों का समूल नाश होता है। और भी चार पत्रक कमल में 'अ, इ, उ, ए' इन चार वर्णों का चिन्तन करना चाहिये, जिससे पांचों ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। नाभि, हृदय, मुख, ललाट एवं मस्तक पर ध्यान करें, जैसे कि नाभिकमल में 'अ' कार का, मस्तक कमल में 'सि' वर्ण का, मुख कमल में 'आ' का, हृदयकमल में 'उ' कार का, और कंठ कमल में 'सा' का ध्यान करना चाहिये। इसी तरह अन्य बीजाक्षरों का भी ध्यान करें। १९१,१९२ पदस्थ ध्यान पर विशालकाय ग्रन्थ निर्माण हो सकता है। यहाँ पर अति संक्षिप्त में पदस्थ ध्यान का दिग्दर्शन कराया गया है। (३) रूपस्थ ध्यान का स्वरूप : समवसरण में स्थित अरिहंत भगवान का जिसमें ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं। १९३ समवसरण का स्वरूप : सर्वप्रथम चारों दिशाओं में चार मान स्तंभ रोपे जाते हैं, मान स्तंभों के चारों ओर सरोवर होता है, फिर निर्मल जल से युक्त खाई होती है, उसमें पुष्पवाटिका होती है और उसके आगे प्रथम कोट होता है, उसके आगे दोनों ओर दो-दो नाट्यशालाएं होती हैं, उसके आगे दूसरा उपवन होता है, उसके आगे वेदिका होती है, फिर ध्वजाओं की पंक्तियाँ होती हैं, बाद में दूसरा कोट होता है, उसके आगे वेदिका सहित कल्पवृक्षों का उपवन होता है, तदनन्तर स्फटिकमणि का तीसरा कोट होता है, उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियों की बारह सभाएं (भुवन पति, वाण व्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक इन चारों देवों की देवियाँ और चतुर्विध संघ, श्रावक श्राविका साधु साध्वी) होती हैं। फिर पीठिका और पीठिका के अग्रभाग पर स्वयंभू भगवान विराजमान होते हैं। ऋषभदेव भगवान के समवसरण का प्रमाण बारह योजन था। अजित नाथ भगवान के समवसरण का प्रमाण साढ़े ग्यारह योजन था। संभवनाथ भगवान के समवसरण का प्रमाण एक योजन ४१४ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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