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१२. इस वलय में ८८ ग्रहों की स्थापना की जाती है। १३. तेरहवें वलय में ५६ दिक्कुमारिकाओं की स्थापना करने में आती है। १४. चौदहवें वलय में ६४ इन्द्रों की स्थापना की जाती है। १५. पन्दरहवें वलय में २४ यक्षिणियों की स्थापना करने में आती है। १६. सोलहवें वलय में २४ यक्षों की स्थापना करने में आती है।
१७. सत्तरहवें वलय में असंख्यात शाश्वत अशाश्वत अरिहंतों की जिनप्रतिमाओं के चैत्य का स्थापन किया जाता है।
१८. अठारहवें वलय में ऋषभदेव आदि वर्तमानकालीन २४ तीर्थंकरों के परिवार, गणधर एवं साधुओं की संख्या का न्यास किया जाता है।
१९. उन्नीसवें वलय में महत्तरा आदि साध्वियों की संख्या है। २०. बीसवें वलय में श्रावकों की संख्याओं को स्थापित किया गया है। २१. इक्कीसवें वलय में श्राविकाओं की संख्या का न्यास है। २२. बाईसवें वलय में ९६ भवन योग की स्थापना करने में आयी है। २३. तेईसवें वलय में ९६ करण योग की स्थापना करने में आयी है। २४. चौबीसवें वलय में ९६ करण की स्थापना करने में आयी है।
'पदध्यान' के दो भेद हैं - द्रव्य और भावा राजा, मंत्री, कोषाध्यक्ष, सेनापति, पुरोहित, आदि लौकिक पदवियाँ 'द्रव्य पद' हैं और आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेद आदि पदवियाँ 'भावपद' हैं। पंच परमेष्टि पदों का आत्मा में चिन्तन करना 'परम पद' ध्यान है। 'सिद्धि ध्यान' के दो भेद हैं - द्रव्य और भाव। लघिमा, वशिता, ईशित्व, प्राकाम्य, महिमा, अणिमा, आदि आठ लब्धियाँ 'द्रव्य सिद्धि' हैं और राग द्वेष माध्यस्थ भाव रूप परमानंद लोकोत्तर' सिद्धि है। मुक्ति प्राप्त जीवों के ६२ गुणों का ध्यान 'भाव सिद्धि' है। सिद्धों के गुणों को अपने आत्मा में अध्यारोप करना 'परमसिद्धि' ध्यान
है।
इन चौबीस भेदों में आये हुए भवनयोग, करणयोग और करण का स्वरूप निम्नलिखित हैं२०४. भवनयोग और करणयोग के ९६-९६ भेद हैं। एक अन्तर्मुहूर्त में मरुदेवी माता की तरह सहज क्रिया की जाती है उसे भवनयोग कहते हैं। और जानकर की जानेवाली क्रिया 'करणयोग' कहलाती है। भवनयोग के ८ भेद इस प्रकार हैं- योग, वीर्य, स्थान, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति और सामर्थ्य, इन आठ भेदों के प्रत्येक के तीनतीन भेद हैं- 'योग', 'महायोग' और 'परमयोग'। दूसरे शब्दों में योग को जघन्य, महायोग
ध्यान के विविध प्रकार
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