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दीर्घकाल तक सिंचित होते हुए मन में चिंतन करें। उसके बाद शुद्ध स्फटिकरत्न सदृश निर्मल मंत्रराज 'अहं' 'अर्हन्त' परमेष्टी का मस्तक में ध्यान करें। इसके चिंतन से आत्मा परमात्मा की एकरूपता का अनुभव करें। वीतराग, वीतद्वेष, निमोह, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी देवों से पूजित समवसरण में धर्मोपदेशना देने वाले परमात्मा के साथ अपना अभिन्न रूप मानकर ध्यान करें। इस ध्यान से परमात्मत्व पद की प्राप्ति होती है।८० साधक को विशेषतः पंच परमेष्टी पद का ही ध्यान करना चाहिये। ५८१ मंत्र तो अनेक प्रकार के हैं किन्तु योगी के लिये यही श्रेयस्कर है।
आठ पंखुडियों वाले श्वेत कमल का चिंतन करें। उस कमल की कर्णिका में स्थित सात अक्षर वाले 'णमो अरहंताणं' मंत्र का चिंतन करें। तदनंतर सिद्ध आदि चार मंत्र पदों का अनुक्रम से चार दिशाओं की पंखुड़ियों में तथा चूलिकाओं के चार पदों का विदिशा की पंखुड़ियों में चिंतन करें। और भी मंगल, उत्तम और शरण इन तीन पदों को अरिहंतसिद्धसाहु धर्म के साथ जोड़कर ध्यान करें। ८२
विद्या प्रवाद नामक पूर्व से उद्धृत 'हां', 'ही', 'हूं', 'ह्रौं', 'ह्वः', अथवा 'अ सि आ उ सा नमः इन विद्या का निरंतर अभ्यास (ध्यान) करने से संसार के समस्त क्लेश नष्ट हो जाते हैं। १८३
अष्ट पत्र वाले कमल में 'ॐ ह्रीं अर्ह' इस मंत्र का ध्यान करने से पापों का क्षय किया जाता है।९८४
अष्ट पत्र वाले कमल की कल्पना करें। विदिशावाले पत्रों पर 'ॐ ह्रीं' पद तथा अन्त में 'स्वाहा' पद सहित ‘णमो अरहंताणं' इन सात अक्षरवाले मंत्र को स्थापित करें। दिशावाले पत्रों पर आदि में 'ॐ' पद तथा अन्त में 'स्वाहा' पद के साथ क्रमशः 'ह्वीं, हूं, ह्रौं, ह्वः' इन पदों से युक्त ‘णमो अरहंताणं' इस मंत्र को स्थापित करें। कर्णिका में 'ॐ ह्रीं अहं स्वाहा' यह मंत्र लिखें। इस कमल को 'बीं' इस मायाबीज से तीन बार वेष्टित करें। इस यंत्र को कमल पर लिखकर 'ॐ ह्रीं णमो अरहंताणं हूं नमः' मंत्र का ध्यान करें। जिससे इष्ट कार्य सिद्धि एवं हेय उपादेय की प्राप्ति होती है।९८५ सब प्रकार की ध्यान प्रक्रिया आत्मकल्याण हेतु ही करें। स्वार्थ भाव से न करें। .
__ गणधरवलय का प्रारंभ षट्कोण यंत्र से (चक्र) विहित है। जिसके ऊपर क्रमशः तीन वलय रहते हैं। प्रथम वलय में आठ, दूसरे में सोलह और तीसरे में चौबीस कोष्ठक होते हैं, जिनमें ऋद्धि संपन्न जिनों के नमस्कार रूप से युक्त प्रथम वलय में णमो जिणाणं से णमो पदाणुसारिणं' तक आठ पद रहते हैं। दूसरे वलय में 'णमो सभिन्नसोदारणं से दिट्ठिविसाणं' तक (२४ पद) मंत्रपद रहते हैं। तीसरे वलय में २५ से - 'णमो
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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