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ऊ-ऋ-ऋ लृ -लू-ए-ऐ- ओ औ अं अः ' इन सोलह अक्षरों का चिंतन करें। उस कमल की कर्णिका पर 'रेफ-बिन्दु-कला' सहित हकार 'हं' अथवा 'अहं' इस महामंत्र का चिंतन करें। तदनंतर उस महामंत्र के रेफ से निकली हुई धूप का चिंतन करें। उसके पश्चात् धूप में से निकलते हुए स्फुलिंगों की पंक्ति का चिंतन करें। फिर उसमें से निकलती हुई ज्वाला की लपटों का चिंतन करें। तदनंतर क्रम से बढ़ते हुए उस ज्वाला के समूह से हृदय में स्थित अधोमुख कमल को जलता हुआ चिंतन करें। वह हृदय में स्थित कमल आठ पत्र से युक्त हो, उन आठ पत्रों पर आठ कर्म स्थित हो! नाभिकमल की कर्णिका पर स्थित 'अहं' के रेफ से उठती हुई (निकलती हुई ) अग्नि के द्वारा आत्मा को आवरण करने वाले उन आठ कर्म युक्त कमल को जलता हुआ चिंतन करें। तत्पश्चात् बाहर स्थित तीन कोण वाले अग्नि मंडल से उठी हुई स्फुरायमान ज्वाला समूहवाली अग्नि से अपने सप्तधातुमय शरीर को जलता हुआ चिंतन करें। इस प्रकार मंत्राग्नि कमलस्थित कर्मों को तथा मंडलाग्नि बाहर के शरीर को जलाकर, जलाने योग्य अन्य पदार्थ के अभाव से धीरे-धीरे स्वयं कर्मरहित हो रहा है, ऐसा चिंतन करें। इस प्रक्रिया को 'आग्नेयी धारणा' कहते हैं । १७२
३) वायवी (मारुती) धारणा :- आग्नेयी धारणा के बाद समग्र तीन लोक (भवन) के विस्तार को पूरित करने वाले, पर्वतों को चलित करने वाले एवं समुद्र को क्षुब्ध करने वाले पवन का चिंतन करें। आग्नेयी धारणा में शरीर एवं अष्टकर्मों को जलाकर जो राख बनायी, उन्हें वायु से चारों दिशाओं में उड़ाने का चिंतन करें। प्रचण्ड पवन के चलने से देह एवं कर्मों की राख उड़कर बिखर रही है। इस प्रकार दृढ़ अभ्यास के साथ वायु मंद-मंद गति से शांत हो रही है, ऐसा चिंतन ही 'वायवी धारणा' है । १७३ ४) वारुणी धारणा :- वायवी धारणा के पश्चात् ध्यानी साधक इन्द्र धनुष, बिजली एवं गर्जनादि से रहित मेघमालिका से व्याप्त आकाश का चिंतन करें। उसमें अर्धचन्द्राकार बिन्दु युक्त वरुण बीज 'व' का चिंतन करें। वरुण बीज से सतत उत्पन्न अमृत सम जलधाराएं आकाश से बरस रही हैं। उस जल से, पहले देह और कर्मों की उड़नेवाली एवं शान्त राख की ढेर, साफ हो रही है, ऐसा चिंतन करें। पौद्गलिक देह और अष्टकर्मों की राख जल द्वारा धोकर साफ हो रही है और वारुणमंडल शान्त बन रहा है । इस प्रकार का चिन्तन करना 'वारुणी धारणा' है। १७८
५) तत्त्वभू (तत्त्वरूपवती ) धारणा :- उपरोक्त चार धारणाओं का चिंतन करने के बाद योगी पुरुष अपने को सर्वज्ञ समान सप्त धातुरहित, पूर्ण चन्द्रमा सदृश प्रभावाला, दिव्य अतिशयों से युक्त, कर्मरज से रहित, देवों से पूजित निराकार आत्मा समझकर स्व स्वरूप का चिन्तन करें। यही 'तत्त्वभू धारणा' की प्रक्रिया है । १७५
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(२) पदस्थ ध्यान का स्वरूप :
• पवित्र पदों का आलंबन लेकर किया जानेवाला
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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