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________________ जिनेन्द्र प्रतिमा का ध्यान करना स्थापना ध्यान है। चेतन-अचेतन अव्य, गुण, पर्याय आदि का चिन्तन करना द्रव्य ध्यान है और सिद्ध भगवान् और अरिहंत भगवान् का ध्यान करना भाव ध्यान है।१६६ ध्येय के अनुसार ध्यान (धर्म ध्यान) के और चार भेद हैं- १६७ पिण्डस्थ ध्यान, पदस्थध्यान, रूपस्थ ध्यान और रूपातीत ध्यान। कहीं-कहीं पदस्थ ध्यान को प्रथम रखा गया है। पवित्रपदों का आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं। पिण्ड का अर्थ यहां पर शरीर है। शरीर का आलंबन लेकर किया जाने वाला ध्यान पिण्डस्थ ध्यान है। सर्वचिद्रूप का आलंबन लेकर जो ध्यान किया जाता है वह रूपस्थ ध्यान है और निरंजन निराकार सिद्ध भगवान् का आलम्बन लेकर किया जाने वाला ध्यान रूपातीत ध्यान कहलाता है।१६८ (१) पिण्डस्थ ध्यान का स्वरूप :- शुद्ध स्फटिक सदृश निर्मल शरीर, ज्ञानदर्शन-सुख-वीर्य से अलंकृत, आठ महाप्रातिहायों से युक्त, मनुष्य एवं देवों से पूजित, घातिकर्मों के क्षय से उत्पन्न केवलज्ञान-केवलदर्शन के स्वामी, चौतीस अतिशय और पैंतीस वाणी से युक्त अरिहन्तदेव का जिसमें ध्यान किया जाता है, उसे पिण्डस्थ ध्यान कहते हैं। और भी शरीर के अधोभाग को अधोलोक, मध्यभाग को मध्यलोक, नाभि के स्थान पर मेरू पर्वत, नाभि से ऊपरी भाग को ऊर्ध्वलोक मानकर कंधे तक के भाग में स्वर्गों की, ग्रीवा भाग में अवेयक की, ठोडी के स्थान पर अनुदिश की, मुख स्थान पर विजयादिक पांच अनुत्तरविमान की, ललाट पर सिद्धस्थान की और मस्तक पर लोक के अग्र भाग की कल्पना करें। इस प्रकार अपने शरीर में तीन लोक सदृश आकार का चिंतन करना पिण्डस्थ ध्यान है। १६९ इस ध्यान में पांच धारणाओं का चिन्तन किया जाता है,२७० जिनकी प्रक्रिया निम्नलिखित है १) पार्थिवी धारणा :- एक राजूप्रमाण मध्यलोक की कल्पना करें। उसे क्षीरसागर के समान निर्मल जल से युक्त, निःशब्द, निस्तरंग, कर्पूरबर्फ-दुग्ध के समान श्वेत क्षीर सागर का चिन्तन करें। उसमें एक लाख योजन जम्बूद्वीप सदृश पद्मरागमणि की स्वर्णप्रभा से युक्त एक हजार पंखुड़ियोंवाले कमल का चिन्तन करें। उस कमल के मध्य भाग में केसराएं है, उसके अन्दर देदीप्यमान पीलीप्रभा से युक्त और सुमेरू पर्वत के समान एक लाख योजन ऊंची कणिका (पीठिका) का चिंतन करें। उस कर्णिका में शरद्-चन्द्र सा श्वेत वर्ण का एक सिंहासन का चिंतन करें। उस पर अपने को बैठा हुआ शान्त, जितेन्द्रिय, रागद्वेषरहित चिंतन करें। इस प्रक्रिया को 'पार्थिवी धारणा' कहते हैं। १७१ २) आग्नेयी धारणा :- पार्थिवी धारणा के बाद ध्यानी पुरुष अपने नाभिमण्डल में सोलहपत्रवाले कमल का चिंतन करें। उस कमल के सोलह पत्तों पर 'अ-आ-इ-ई-उध्यान के विविध प्रकार ४०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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