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गुणस्थान तक रहता है। दसवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म की बंधव्युच्छित्ति हो जाने से ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में योग के द्वारा एक सातावेदनीय का ही बंध होता है। शेष११९ प्रकृतियाँ मोहनीयकर्मजन्य भावों के कारण ही बंधती हैं।१६१ यही आस्रव का कारण है। इस प्रकार इन अपायों (आस्रव) का सतत चिन्तन करना ही 'अपायानुप्रेक्षा' है।
शुक्लध्यान के चार भेद, चार लक्षण, चार आलंबन और चार अनुप्रेक्षा कुल १६ भेद हैं।
आर्तध्यान के आठ भेद, रौद्रध्यान के आठ भेद, धर्मध्यान के सोलह भेद और शुक्लध्यान के सोलह भेद कुल आगमकालीन ध्यान के ४८ भेद हैं।
आगमिक टीका में ध्यान के भेद :- आगमिक ग्रन्थों पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाएं प्राचीन मानी जाती हैं। इनमें प्राचीनतम नियुक्ति है। नियुक्तियां अनेक हैं। उनमें आवश्यक नियुक्ति ही सबसे प्राचीनतम है। आवश्यक नियुक्ति के 'कायोत्सर्ग' प्रकरण में ध्यान का वर्णन है। वहां पर ध्यान के शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद मिलते हैं।१६२ आर्त रौद्र ध्यान अशुभ हैं और धर्म शुक्लध्यान शुभ हैं। कायोत्सर्ग में शुभ ध्यान ही ध्याया जाता है। और भी उसमें ध्यान के तीन भेद मिलते हैं- कायिक, वाचिक और मानसिक। अन्य टीका साहित्य में ध्यान के दो भेद प्रशस्त और अप्रशस्त रूप में मिलते हैं।
___ आगमेतर साहित्य में ध्यान के भेद :ध्यान का एक भेद :- पंच परमेष्टी का लौकिक ध्यान है।१६३
ध्यान के दो भेद :- विभिन्न ग्रन्थों में१६४ आगमकालीन चार ध्यान को शुभअशुभ, प्रशस्त-अप्रशस्त, ध्यान-दुर्ध्यान, ध्यान-अपध्यान, स्थूल और सूक्ष्म, इन दो-दो भागों में रखा है। धर्म-शुक्लध्यान शुभ, प्रशस्त, एवं ध्यान रूप हैं और आर्त-रौद्रध्यान अशुभ, अप्रशस्त, अपध्यान तथा दुर्ध्यान रूप हैं। धर्मध्यान के और भी दो भेद किये हैंआभ्यन्तर और बाह्या आभ्यन्तर में पिण्डस्थादि चार ध्यान हैं और बाह्य में परमेष्टी नमस्कार आदि का कथन है। इसके अतिरिक्त भी ध्यान के दो-दो भेद किये गये हैंमुख्य-उपचार, द्रव्य-भाव, निश्चय-व्यवहार, स्वरूपालम्बन और परालम्बन।
ध्यान के तीन भेद :- परिणाम, विचार और अध्यवसाय के अनुसार ध्यान के तीन-तीन भेद किये गये हैं-१६५ कायिक, वाचिक और मानसिक, तीव्र, मृदु और मध्य तथा उत्तम, मध्यम और जघन्य।
ध्यान के चार भेद:- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के अनुसार ध्यान के चार भेद किये गये हैं। नाम ध्यान में अ-सि-आ-उ-सा, पंच परमेष्टी के पांचों पदों का भिन्न-भिन्न रूप से एवं उनके अक्षरों का, एवं 'अर्ह और 'ॐ' का स्मरण करना नाम ध्यान है। ४०८
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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