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बंधने वाले कर्म की स्थिति के भेदों को स्थितिस्थान कहते हैं। योगस्थान श्रेणी के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यातलोकप्रमाण है एवं कषायाध्यवसायस्थान भी असंख्यातलोकप्रमाण हैं। मिथ्यादृष्टि, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक कोई जीव ज्ञानावरण कर्म की अंतः कोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण जघन्य स्थिति को बांधता है। उस जीव के उस स्थिति के अनुसार (योग्य) जघन्य कषायस्थान, जघन्य अनुभाग स्थान और जघन्य ही योगस्थान होता है। फिर उसी स्थिति, उसी कषाय स्थान, उसी अनुभाग स्थान को प्राप्त जीव के दूसरा योगस्थान होता है। जब सब योगस्थानों को समाप्त कर लेता है तब उसी स्थिति और उसी कषाय स्थान को प्राप्त जीव के दूसरा अनुभाग स्थान होता है। इसी प्रकार कषाय एवं स्थितिस्थान को समझना चाहिये। इस प्रकार सब कर्मों की स्थितियों को भोगने को भावपरिवर्तन (भाव संसार) कहते हैं। इस तरह पांच प्रकार के संसार में जीव ने अनन्तानन्त भव व्यतीत किये। इस प्रकार का चिन्तन करना ही 'अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा' है। १५८
२) विपरिणामानुप्रेक्षा :- संसार की प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है। जड़ अथवा चेतन पदार्थों की अस्थिरता का चिन्तन करना कि सर्व स्थान अशाश्वत है, सर्व द्रव्य परिणामी; सर्व पर्याय परिवर्तनशील है, शाश्वत माने जाने वाले मेरू जैसे अणु भी गमनशील है तो दूसरे पदार्थों का क्या कहें? जीवों का भी एक पर्याय में रहना नियत नहीं है। वह भी पुत्र का भाई होता है। भाई का देवर होता है। माता सौत होती है। पिता पति बन जाता है। जब जीव के एक ही भव में ये नाते हो जाते हैं तो धर्मरहित जीवों के दूसरे भव में कितने नाते होंगे? १५९ पुद्गल का स्वभाव परिणमनशील है। इस प्रकार का सतत चिंतन करना 'विपरिणामानुप्रेक्षा' है।
३) अशभानुप्रेक्षा :- संसार चक्र में जन्म, जरा, मरण, रोग, आधि, व्याधि, उपाधि, संयोग, वियोग आदि का चक्र सतत चला करता है। नरक निगोद स्थान दुःखमय है। निगोदावस्था में अनन्तानन्त काल व्यतीत करना पड़ता है। नरक में सभी वस्तुएं दुःख देने वाली और अशुभ हैं। क्योंकि वहां के क्षेत्र का स्वभाव ही है।१६० नारकी जीव सदा ही क्रोधाग्नि में जलते रहते हैं। तिर्यंच और मनुष्य भव में अशुचिस्थान में जन्म लेना भी अशुभ ही है। अतः संसार के अशुभ स्वभाव का चिंतन करना ही 'अशुभानुप्रेक्षा' है।
४) अपायानुप्रेक्षा :- संसार में बंध के पांच कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन्हें अपाय माना गया है। इसके अतिरिक्त आर्त रौद्र ध्यान, तीन शल्य, तीन गारव (गौरव), अज्ञानता तथा राग-द्वेष-मोह भी अपाय हैं। मोहनीय कर्म के उदय से ही जीव के अनेक प्रकार के मिथ्यात्व आदि होते हैं। बंध के पांच प्रकारों में योग को छोड़कर शेष चार प्रकार मोहनीय कर्म का ही उदय है। मोहनीय कर्म का उदय दसवें
ध्यान के विविध प्रकार
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