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________________ कर्मपुद्गलों और नोकर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है और छोड़ता है। कर्म द्रव्य परिवर्तन और नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन को ही द्रव्य परिवर्तन (द्रव्य संसार) कहते हैं। समस्त लोकाकाश का कोई भी प्रदेश खाली न रहा हो कि जहां सभी जीवों ने जन्म न लिया होआकाश प्रदेश के एक-एक प्रदेश में अनेक बार जन्मे और मरे हैं। यही क्षेत्रपरिवर्तन (क्षेत्र संसार) है। इसके दो भेद हैं- स्वक्षेत्रपरिवर्तन और परक्षेत्रपरिवर्तन। कोई सूक्ष्म निगोदिया जीव, सूक्ष्मनिगोदिया जीव की जघन्य अबगाहना को लेकर उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण कर मर गया। पश्चात् अपने शरीर की अवगाहना में एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते महामत्स्य की अवगाहना पर्यन्त अनेक अवगाहना धारण करता है। इसे स्वक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं। छोटी अवगाहना से लेकर बड़ी अवगाहना पर्यन्त सब अवगाहनाओं को धारण करने में जितना काल लगता है उसको स्वक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं। कोई जघन्य अवगाहना का धारक सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव लोक के आठ मध्यप्रदेशों को अपने शरीर के आठ मध्य प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ। पीछे वही जीव उस ही रूप से उस ही स्थान में दूसरी तीसरी बार भी उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य अवगाहना के जितने प्रदेश हैं, उतनी बार उसी स्थान पर क्रम से उत्पन्न हुआ और श्वास के अट्ठारहवें भाग प्रमाण क्षुद्र आयु को भोगकर मरण को प्राप्त हुआ। पीछे एकएक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते सम्पूर्ण लोक को अपना जन्म क्षेत्र बना ले, यह परक्षेत्रपरिवर्तन है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समयपर्यंत यह जीव क्रमशः जन्म लेता है और मरता है। यही कालपरिवर्तन (काल संसार) है। संसारी जीव नरकादि चार गतियों की जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थितिपर्यंत सब स्थितियों में अवेयक तक जन्म लेता है और मरता है, यह भवपरिवर्तन (भव संसार) है। नरक गति की जघन्य आयु दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। तिर्यंच और मनुष्य की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य की है। देवगति की जघन्य आयु और उत्कृष्ट आयु तो तेतीस सागरोपम की है। किन्तु यहां पर प्रैवेयक तक इकतीस सागरोपम की है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि की उत्पत्ति अवेयक तक ही होती है, आगे नहीं। इस प्रकार चारों गतियों की आयु पूर्ण करने को भवपरिवर्तन कहते हैं। संज्ञी जीव जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बंध के कारण तथा अनुभाग बंध के कारण अनेक प्रकार की कषायों से तथा श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थानों से वर्धमान भाव संसार में परिणमन करता है। योगस्थान, अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान, कषायाध्यवसायस्थान और स्थिति स्थान, इन चार निमित्त से भावपरिवर्तन होता है। प्रकृतिबंध और प्रदेश बंध के कारण आत्मा के प्रदेशपरिस्पन्दरूप योग के तरतमरूप स्थानों को योग स्थान कहते हैं। अनुभागबंध के कारण कषाय के तरतमस्थानों को अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान कहते हैं। स्थितिबंध के कारण कषाय के तरतमस्थानों को कषायस्थान या स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान कहते हैं। जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व ૪૦ ૬ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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