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________________ हैं - १५५ क्षमा, मुक्ति, आर्जव और मार्दव। कहीं-कहीं क्रम भिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है- क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति । क्षमा :- साधना मार्ग में यदि क्रोध प्रवेश कर जाय तो उसे दूर करने के लिये क्षमा का आलंबन लिया जाय। क्षमा से सारे शत्रु नामूल हो जाते हैं। मुक्ति :- 'निर्लोभता' । लोभ कषाय पतन का कारण है। उसके उदयावली में आते ही संतोष का आलंबन लिया जाय। आर्जव :- 'सरलता' । साधक जीवन का आभूषण सरलता है। कषाय संसार परिभ्रमणका कारण है। इसलिये माया कषाय का उदय होते हा सरलता का आलंबन लेना चाहिये। मार्दव :- 'मृदुता नम्रता । मान कषाय के उदयावलि में आते ही मृदुत का आलंबन लेकर उसे दूर करें। मृदुता, नम्रता और कोमलता ये सभी एक ही पर्यायवाची शब्द हैं। इन चारों का आलंबन लेने से आत्मविशुद्धि की अवस्था प्राप्त होती है और शुक्लध्यान की योग्यता (शक्ति) प्राप्त होती है। शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ :- आगम में शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ बताई हैं- १५६ १) अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा, २) विपरिणामानुप्रेक्षा, ३) अशुभानुप्रेक्षा और ४ ) अपायानुप्रेक्षा । आगमेतर ग्रन्थों में अनुप्रेक्षा के नाम निम्नलिखित हैं- १५७ १) आस्रवद्वार, २) संसार स्वभाव, ३) भवों की अनन्तता तथा ४) वस्तु का परिणमन। १) अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा :- अनादिकाल से जीव मिथ्यात्व और कषाय के कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव संसार में परिभ्रमण कर रहा है। सब कर्मों में मोहनीय कर्म प्रधान है और मिथ्यात्व व कषाय उसके भेद हैं। यों कर्म बंध के पांच प्रकार हैं मिथ्यात्वादि, परन्तु इन दोनों को ही अधिक प्रधानता दी है, क्योंकि इन दोनों के अधीन हुआ संसारी जीव ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के योग्य पुद्गलस्कन्धों को प्रतिसमय ग्रहण करता है। लोक में सर्वत्र कार्मणवर्गणाएँ भरी हुई हैं, उनमें से अपने योग्य को ही ग्रहण करता है। आयु कर्म सर्वदा नहीं बंधता, इसलिये सात ही कर्मों के योग्य पुद्गल स्कन्धों को प्रतिसमय ग्रहण करता है और अबाधाकाल पूर्ण हो जाने पर उन्हें भोगकर छोड़ देता है। वैसे ही औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों की छह पर्याप्तियों के योग्य नोकर्मपुद्गलों को भी प्रतिसमय ग्रहण करता है और छोड़ता है। इस प्रकार जीव प्रतिसमय ध्यान के विविध प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only ४०५ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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