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________________ रहित, अनिवृत्ति एवं क्रियारहित शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है। यह अवस्था शैलेश की तरह स्थिर होने से शैलेशी अवस्था कहलाती है। तेरहवां गुणस्थान पूर्ण होकर चौदहवें गुणस्थान के प्रारंभ में यह अवस्था प्राप्त होती है। मेरू की तरह स्थिर अवस्था होने से परम शुक्लध्यान 'समुच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपाती' नामक चतुर्थ ध्यान की प्राप्ति होती है।१५० यहां ध्यान का अर्थ है- एकान्त रूप से जीव के चिन्ता का निरोध - परिस्पन्द का अभाव होना है। इस दृष्टि से यहां ध्यान संज्ञा दी गई है।१५१ शुक्लध्यान के चारों ध्यान में से अन्तिम के दो ध्यान संवर और निर्जरा का कारण हैं।१५२ शुक्लध्यान के चार प्रकारों में योग :- प्रथम 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचार' ध्यान में एक योग या तीनों ही योग होते हैं। योग के अर्थ में संक्रमण नहीं किन्तु योगान्तर में संक्रमण हो तो अनेक योग होते हैं, नहीं तो एक ही योग होता है। तीनों में से कोई एक योग अथवा अनेक योगों की संभावना है। द्वितीय ‘एकत्व-वितर्क-अविचार' ध्यान संक्रमणरहित होने से तीनों योग में से किसी एक योग में ही तल्लीनता आती है। तृतीय 'सूक्ष्म-क्रिया-अनिवर्ती' ध्यान केवल सूक्ष्म काययोग में ही होता है। इसमें अन्य सभी योगों का निरोध हो जाता है। चौथे 'समुच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपाती' ध्यान में अयोग अवस्था होती है। समस्त योगों का निरोध हो जाने पर ही यह अवस्था प्राप्त होती है। इसलिये यह ध्यान अयोगीकेवली को शैलेशी अवस्था प्राप्त होने पर होता है। १५३ शुक्लध्यान के चार लक्षण :- आगम ग्रन्थों में शुक्लध्यान के चार लक्षण बताये हैं।-१५४ १) अव्यथा :- इसे अवध भी कहते हैं। अवध का अर्थ है अचलता। स्थिर शुक्लध्यानी मुनि क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण आदि परीषह और देव, मानव, तिर्यच संबंधी मारणान्तिक उपसर्ग आने पर भी विचलित नहीं होते, अपितु स्थिर और सावधानता से समता में लीन रहते हैं। २) असंमोह :- व्यामोह में न पड़ना। ध्यानावस्था में चाहे जितने अनुकूल, प्रतिकूल उपद्रव आने पर भी विचलित नहीं होते। ____३) विवेक :- सदसद्विवेक बुद्धि से भेदविज्ञान का ज्ञान होता है। देह और आत्मा की भिन्नता स्पष्ट होती है। ४) व्युत्सर्ग :- 'त्याग'। शुक्लध्यानी द्रव्य (कुटुंब परिवार आदि) और भाव (कषाय, संसार, कर्म) से सर्वथा मुक्त होता है। इन चार लक्षणों के प्राप्त होने पर ही ध्यान की शक्ति प्राप्त होती है। शुक्लध्यान के चार आलम्बन :- आगम में शुक्लध्यान के चार आलम्बन बताये जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व ४०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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