SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अकस्मात् अपने गति को रोक नहीं सकता, परन्तु धीरे-धीरे रोकता है। वैसे ही सर्व बादर योग का निरोध करने के बाद सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचन और सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करते हैं- औदारिकादि शरीर द्वारा प्राप्त केवलज्ञानादि लक्ष्मी एवं अचिन्तनीय शक्ति संपन्न योगी ही बादर काययोग का अवलम्बन लेकर औदारिक, वैक्रिय, आहारक शरीर व्यापारगत वचनयोग और मनोयोग को शीघ्र ही रोक लेता है। बाद में सूक्ष्म काययोग को एवं बादर काययोग को रोकता है क्योंकि बादर काययोग का निरोध किये बिना सूक्ष्म काययोग का निरोध नहीं कर सकता। तदनन्तर सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचनयोग और सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करते हैं। बाद में सूक्ष्म काययोग से रहित सूक्ष्म क्रियानिवर्ती नामक तीसरा शुक्लध्यान करते हैं। इसका दूसरा नाम 'समुच्छिन्न क्रिया' अथवा 'सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाती' है। इसमें सूक्ष्म क्रिया कभी भी स्थूल नहीं हो सकती। अतः काययोग का निरोध करने पर ही शुक्लध्यान का तीसरा भेद 'सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती' की प्राप्ति होती है। सम्पूर्ण आत्मस्थिरता की ओर जाने वाले अत्यंत प्रवर्धमान परिणाम से निवृत्त नहीं होने वाली (सूक्ष्म से बादर में परिणत नहीं होने वाली) सूक्ष्म क्रिया को ही 'सूक्ष्मक्रिया अनिवर्ती' कहते हैं। यह अवस्था ही ध्या: है।१४७ और योग निरोध की भी यही प्रक्रिया है। ४) समुच्छिन्न-क्रिया अप्रतिपाती (निवर्ती) :- तीसरे ध्यान के बाद चतुर्थ समुच्छिन्न क्रिया-निवर्ती (अप्रतिपाती) ध्यान का प्रारंभ होता है। इसमें प्राणापान क्रिया का तथा सब प्रकार के मन, वचन काय योग के द्वारा अथवा काययोग, वचनयोग और मनोयोग के द्वारा होने वाली आत्मप्रदेश परिस्पन्दरूप क्रिया का उच्छेद हो जाने पर समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती अथवा सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती ध्यानावस्था की प्राप्ति होती है। जिसमें योग का सम्यक् प्रकार से उच्छिन्न हो गया है उसे समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती ध्यान कहते हैं।१४८ यह श्रुतज्ञान से रहित होने के कारण अवितर्क है। जीवप्रदेशों के परिस्पन्द का अभाव होने से अविचार है अथवा अर्थ, व्यंजन और योगसंक्रान्ति का अभाव होने से भी अविचार है। १४९ चतुर्थ ध्यान के प्रारंभ में सूक्ष्म काययोग की क्रिया भी नहीं होती, कोई भी योग नहीं होता, तब वे केवलज्ञानी अयोगिकेवली बन जाते हैं। तब कहीं चतुर्थ समुच्छिन्न क्रिया-अप्रतिपाती ध्यान प्रारंभ होता है- इसके अनेक नाम है'व्यवच्छिन्न क्रिया-अप्रतिपाती', 'व्युच्छिन्न-व्युपरत क्रिया-अप्रतिपाती'। अप्रतिपाती का अर्थ है- अटल स्वभाव वाली अथवा शाश्वत काल तक अयोग अवस्था कायम रहेगी। योग निरोध क्रिया के पूर्ण होने पर शेष कों की स्थिति आयुकर्म के समान अन्तर्मुहूर्त वत् होती है। तदनंतर समय में शैलेशी अवस्था को प्राप्त होकर चतुर्थ समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान को ध्याता है। यह ध्यान वितर्क रहित, विचार ध्यान के विविध प्रकार ४०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy