SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति करण का निरोध नहीं हो जाता है। मनोयोग और वचनयोग के निरोध होने के बाद ही काययोग का निरोध करता है। क्योंकि पर्याप्त पनक इल्लि जीव के प्रथम समय में जो जघन्य काययोग होता है, उससे भी असंख्यातगुणे हीन काययोग का प्रति समय निरोध करता है। इस प्रकार निरोध करते-करते समस्त बादर काययोग का निरोध करता है। बाद में अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करता है। फिर से अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्म काययोग द्वारा सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करता है। फिर से अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्म काय योग द्वारा सूक्ष्म उच्छ्वास-निश्वास का निरोध करता है। पुनः अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत होने पर सूक्ष्म काययोग द्वारा सूक्ष्म काययोग का निरोध करता हुआ इन करणों को करता है।४६ प्रथम समय में पूर्व स्पर्धकों के नीचे अपूर्व स्पर्धक करता है। इस क्रिया को करते हुए प्रथम वर्गणा के अविभाग प्रतिच्छेदों के असंख्यातवें भाग का अपकर्षण करता है और जीवप्रदेशों के असंख्यातवें भाग का अपकर्षण करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक अपूर्वस्पर्धक करता है। ये अपूर्व स्पर्धक प्रति समय पहले समय में जितने किये गये उनसे अगले द्वितीयादि समयों में असंख्यातगुणे हीन श्रेणिरूप से किये जाते हैं और पहले समय में जितने जीवप्रदेशों का अपकर्षण कर दिया जाता हैं, उनसे अगले समयों में असंख्यातगुणे श्रेणि रूप से जीव प्रदेशों का अपकर्षण कर दिया जाता हैं। इस प्रकार किये गये सब अपूर्व स्पर्धक जगश्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण, जगश्रेणि के प्रथम वर्ग मूल के असंख्यातवें भागप्रमाण और पूर्व स्पर्धकों के भी असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। यह अपूर्व स्पर्धक की प्रक्रिया है। इसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टियों को करता है। कृष्टियों को करते हुए अपूर्व स्पर्धकों की प्रथम वर्गणा के अविभाग प्रतिच्छेदों के असंख्यातवें भाग का अपकर्षण करता है और जीवप्रदेशों के असंख्यातवें भाग का अपकर्षण करता है। इस प्रकार यहां अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टियाँ करता है। ये कृष्टियाँ प्रति समय पहले समय में जितनी की गई उनसे आगे द्वितीयादि समयों में असंख्यातगणी हीन श्रेणिरूप से की जाती है और पहले समय में जितने जीव प्रदेशों का अपकर्षण कर की गई उनसे अगले समयों में असंख्यातगुणी श्रेणिरूप से जीवप्रदेशों का अपकर्षण कर की जाती है। कृष्टिगुणकार पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सब कृष्टियां जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और अपूर्व स्पर्धकों के भी असंख्यातवें भाग प्रमाण है। कृष्टिकरण क्रिया के समाप्त हो जाने पर फिर से उसके अनन्तर समय में पूर्व स्पर्धकों का और अपूर्व स्पर्धकों का नाश करता है। अन्तर्मुहुर्त काल तक कृष्टिगत योग वाला होता है और सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यान का ध्याता है। अन्तिम समय में कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग का नाश करता है। इन प्रक्रिया में (योगनिरोध) पहले बादर काययोग को रोका जाता है। यदि बादर काययोग हो तो सूक्ष्म काययोग का निरोध अशक्य है। दौड़ने वाला मनुष्य ४०२ . जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy