________________
काययोग फलक वापिस अर्पण करने आदि में व्यापार करते हैं । १४२ उसके बाद अंतर्मुहूर्तमात्र समय में योग-निरोध प्रारंभ करते हैं।
योग-निरोध :- जो केवली समुद्घात को प्राप्त होते हैं वे समुद्घात के पश्चात् और जो समुद्घात को प्राप्त नहीं होते हैं वे योग निरोध के योग्य काल के शेष रहने पर योग-निरोध का प्रारंभ करते हैं।
जो परिस्पन्दन शरीर, भाषा, मनोवर्गणा के पुद्गलों की सहायता से होता है, उसे योग कहते हैं। अथवा पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काययुक्त जीवों की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है, उसे योग कहते हैं। १४३ उन योगों के विनाश को योग निरोध की संज्ञा है । १४४ क्योंकि योगसहित जीव की कदापि मुक्ति नहीं। इसलिये योगनिरोध १४५ होना ही चाहिये। इन तीनों योगों के दो भेद हैं- सूक्ष्म व बादर। केवली भगवान केवली समुद्घात के अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत होने के बाद बादर काययोग से तीनों योगों में से सर्वप्रथम बादर मनोयोग को रोकते हैं। सर्व प्रथम मन को रोकने का कारण यही है कि मन पर्याप्ति नामक एक करण शरीर से संबद्ध है, जिसके द्वारा जीव मनोद्रव्य वर्गणाओं को ग्रहण करता है। जिन पुद्गल वर्गणाओं से मन बनता है उन्हें मनोद्रव्य वर्गणा कहते हैं और मनोद्रव्यवर्गणा के ग्रहण करने से योग्य शक्ति के व्यापार को मनोयोग कहते हैं। अतः मनःपर्याप्ति के वियोग करने के लिए ही अनन्तशक्ति के धारक जीव मन के विषय को रोकते हैं। उसे रोकने के लिये वह पहले मनःपर्याप्ति करण से युक्त पंचेन्द्रिय संज्ञी जीव के पर्याप्तक होने के प्रथम समय में जघन्य मनोयोग उतने मनोद्रव्यवर्गणा के स्थानों को अपनी आत्मा में रोकता है। उसके बाद प्रति समय उसके असंख्यात गुणे हीन स्थानों को रोकता है। समस्त स्थान के रुकने पर वह अमनस्क -मनःपर्याप्तिरहित होता है। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त के बाद बादर काययोग से बादर वचनयोग का निरोध करता है । पुनः अन्तर्मुहूर्त में बादर काययोग के द्वारा बादर उच्छ्वास - निश्वास का निरोध करता है । द्वीन्द्रिय जीव के जो वचनयोग होता है और साधारण वनस्पति जीव के जो श्वासोच्छ्वास होता है, मनोयोग की तरह ही उससे संख्यातगुणे हीन वचनयोग और श्वासोच्छ्वास का निरोध करते हुए समस्त वचनयोग और श्वासोच्छ्वास का निरोध करता है। उसके बाद जघन्य पर्याप्तक मनक जीव के जो काययोग होता है उससे असंख्यातगुणे हीन अन्तर्मुहूर्त में बादर काययोग के द्वारा निरोध करते-करते समस्त बादर काययोग का निरोध करता है। विशेषतः उल्लेखनीय यह है कि द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीव के प्रथम समय में जो जघन्य वचनयोग होता है और पर्याप्तक साधारण जीव के प्रथम समय में जो श्वासोच्छ्वास होता है, उससे असंख्यातगुणे हीन असंख्यातगुणे वचनयोग और श्वासोच्छ्वास को प्रति समय तब तक रोकता है, जब तक समस्त वचनयोग और
ध्यान के विविध प्रकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
४०१
www.jainelibrary.org