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सकता। अतः आत्मा के प्रदेशों को फैलाने से अतिरिक्त कर्मों का क्षय होकर, वेदनीय, नाम, और गोत्र कर्म भी आयु कर्म के बराबर ही हो जाते हैं। जिस प्रकार गीले वस्त्र को इकट्ठा करके यदि एक जगह रख दिया जाय तो उसे सूखने में बहुत समय लगता है, किंतु यदि उसे फैला दिया जाय तो वह जल्दी सूख जाता है, उसी प्रकार संकुचित दशा में जो कर्मरज आत्मा से पृथक् होने में अधिक समय लेती है, वही समुद्घात दशा में आत्मा के प्रदेशों के फैलाये जाने पर कम समय में पृथक् होने के योग्य हो जाती है। १३९
इस प्रकार चार समय में आयुष्य को अन्य कर्मों की स्थिति के समान बनाकर पाँचवें समय में लोक में फैले हुए कर्म वाले आत्मप्रदेशों का उपसंहार (संहरण कर सिकोड़ते हैं) करता है। छठे समय में पूर्व-पश्चिम के प्रदेशों का संहार करके मंथानी से पुनः कपाट के आकार करता है और आठवें समय में दण्डाकार को समेटकर पूर्ववत् अपने मूल शरीर में
स्थित हो जाते हैं। इस प्रकार चार समय में दण्ड, कपाट, मंथानी और लोक व्यापी तथा चार समय में मंथानी, कपाट, दण्ड और अपने शरीर में स्थित होता है। इस प्रकार केवलीसमुद्घात में आठ समय लगते हैं । १४०
समुद्घात में किस समय कौन योग होता है? समुद्घात के समय मन और वचन के योग का व्यापार नहीं होता। उस समय दोनों योगों का कोई प्रयोजन नहीं होता है, केवल एक काय-योग का ही व्यापार होता है। इसलिये 'समुद्घात काल में पहले और आठवें समय में औदारिक काया की प्रधानता होने से औदारिक काययोग होता है। उस समय केवली अपने शरीर में हो स्थिर होते हैं। दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिक शरीर से बाहर आत्मा का गमन होने से कार्मण- वीर्य के परिस्पन्द - अत्यधिक कम्पन होने से औदारिक मिश्र काय होता है। कपाट का आकार द्वितीय समय में होता है। कपाट का उपसंहार (समेटना) सातवें समय में होता है और मंथानी का उपसंहार छट्ठे समय में होता है। तीसरे, चौथे और पांचवें समय में आत्मप्रदेश औदारिक शरीर के व्यापाररहित और उस शरीर से रहित होने से उस शरीर को सहायता के बिना अकेला कार्मणकाययोग होता है। चौथे समय में मंथानी के अन्तरालों को भरा जाता है - लोक व्यापी होता है। पांचवें समय में मंथानी के अंतरालों का उपसंहार करता है और तीसरे समय में मंथानी के आकार का होता है। इसलिये इन तीनों समयों में कार्मण काय - -योग होता है और उसमें जीव नियम से अनाहारक होता है। इन तीनों समयों में जीव की अनाहारक अवस्था है । १४१ समुद्घात का त्याग करने के बाद यदि आवश्यकता हो तो वे तीनों योगों का व्यापार करते हैं। जैसे कि कोई अनुत्तरदेव मन से प्रश्न पूछे तो सत्य या असत्यामृषा मनोयोग की प्रवृत्ति करें, इसी प्रकार किसी को सम्बोधन आदि करने में वचन योग का व्यापार करते हैं। अन्य दो प्रकार के योग से व्यापार नहीं करते। दोनों भी औदारिक
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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