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तथा व्यवधान से रहित होकर असंख्यात गुणश्रेणि से कर्मों की निर्जरा करके कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक धर्मोपदेश देते विचरण करते रहते हैं। जब आयु का काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, तब वे शीघ्र ही सूक्ष्मक्रिया -प्रतिपाती नामक तीसरा शुक्लध्यान प्रारंभ कर सकते हैं। उसी समय यदि आयुष्य-कर्म की अपेक्षा अन्य नाम, गोत्र, और वेदनीय कमों की स्थिति अधिक रह जाती है, तो उसे बराबर करने के लिये योगी (केवलज्ञानी) केवली-समुद्घात करते हैं। दण्ड, कपाट, प्रतर (मंथानी) और लोक पूरण (लोक व्यापी) समुद्घात करते हैं। केवली समुद्घात में आठ समय लगते हैं। ध्यानस्थ केवली भगवान् ध्यान के बल से अपने आत्मप्रदेशों को शरीर के बाहर निकालते हैं। प्रथम समय में दण्ड, द्वितीय समय में कपाट, तीसरे समय में मंथानी और चौथे समय में लोकव्यापी होता है। प्रथम समय में कुछ कम चौदह राजू उत्सेध रूप और अपने निष्कंभप्रमाण गोल परिवेदरूप आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर ऊपर-नीचे लोकान्त तक , स्थिति के असंख्यात बहुभाग का और अनुभाग के अनन्त बहुभाग का घात करके उन्हें लोकप्रमाण दण्डाकार कर लेते हैं। (लोक के अन्त तक आत्मा के प्रदेशों को विस्तारता है)। दूसरे समय में उस दण्डाकार में से कपाट का आकार करता है और दक्षिण उत्तर दिशा में लोक के अन्त तक वातवलय के सिवाय पूरे लोकाकाश को अपने देह के विस्तार द्वारा व्याप्त करके शेष स्थिति और अनुभाग का क्रम से असंख्यात बहुभाग और अनन्तबहुभाग का घात करते हुए कपाटाकार समुद्घात करते हैं। आत्मप्रदेशों को पूर्व-पश्चिम उत्तर-दक्षिण चारों दिशा में कपाटाकार बना देते हैं। तीसरे समय में उस कपाट को मंथानी का आकार देकर वातवलय के सिवाय पूरे लोकाकाश को अपने आत्मप्रदेशों के द्वारा व्याप्त करके शेष स्थिति और अनुभाग का क्रम से असंख्यात बहुभाग और अनन्तबहुभाग का घात करते हुए कपाट को मंथानी के आकार का बनाकर फैलाते हैं, इससे अधिकतर लोक परिपूरित हो जाता है। यह प्रतर (मंथानी) समुद्घात है। चौथे समय में योगी मंथानी के जो अन्तराल खाली रह जाता है, उन्हें पूर कर लोक व्यापी हो जाता है। चौदह राजूलोक में व्याप्त हो जाता है। इस तरह लोक को परिपूरित करते हुए अनुश्रेणि तक गमन होने से लोक के कोणों में भी आत्मप्रदेश पूरित हो जाते हैं। चौथे समय में सब लोकाकाश को व्याप्त कर शेष स्थिति और अनुभाग का क्रम से असंख्यात बहुभाग और अनन्तबहुभाग का घात कर जो अवस्थान होता है, यह लोकपूरण समुद्घात है। चार समयों में समग्र लोकाकाश को अपने आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं। जितने आत्मप्रदेश हैं उतने ही लोकाकाश के प्रदेश हैं। अतः प्रत्येक आकाशप्रदेश में एक एक आत्मप्रदेश का व्याप्त होना ही 'लोकपूरण' समुद्घात है। इस प्रकार अपने निरावरण अनन्तवीर्य के द्वारा आत्मा के प्रदेशों को फैलाने पर वेदनीय आदि तीन अघातिकमों को आयुकर्म के बराबर करता है किन्तु आयुकर्म का अपवर्तन नहीं करता। क्योंकि चरमशरीरी की आयु का घात नहीं हो ध्यान के विविध प्रकार
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