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________________ आउज्जीकरण कहलाता है। १३३ अथवा केवलिसमुद्घात के पहले की जाने वाली मन, वचन, काया की शुभक्रिया, एक अन्तर्मुहूर्त तक कर्म पुद्गल को उदयावलिका में डालने रूप उदीरणा विशेष को आउज्जियाकरण कहते हैं। १३४ मन, वचन, काय की शुभ प्रवृत्ति (व्यापार), मोक्ष के अनुकूल कर्तव्य ही आउज्ज या आउज्जीकरण है। १३५ इसे आयोजिकाकरण, आवश्यककरण, अवश्यकरण, आवर्जितकरण के नाम से संबोधित करते हैं।१३६ यह क्रिया सब केवली भगवन को अवश्य करणीय होती है। इसलिये आवश्यक करण या अवश्यकरण कहा है। योग निरोध का कार्य एक समय का नहीं होता है उसमें असंख्य समय का कार्य होता है। आवर्जितकरण और केवली समुद्घात किये बिना सीधे ही योग निरोध की प्रक्रिया करने लग जाय तो योग निरोध के सिद्ध होने पर भोगने योग्य अवशिष्ट भवोपग्राही (अघातिकर्म) कर्म के भोगने में योग का अभाव होने से वहाँ सिर्फ अकेले कर्मों का शुभ वेदन ही होगा। इन कर्मों को क्षय करने के लिये केवलज्ञान और क्षायिक सम्यक्त्व के बल से उन उन कर्मदलिकों को ऐसी स्थिति में लाकर रखा जाय कि उन्हें सहजरूप से भोगा जा सके। मोक्ष के सन्मुख होने की क्रिया ही आवर्जितकरण है। केवली समुद्घात के पूर्व की यह विशिष्ट प्रक्रिया है जो तेरहवें गुणस्थान के अंतिम समय में होती है। केवलीसमुद्घात : आयोज्यकरण के बाद केवली समुद्घात किया जाता है। समुद्घात की क्रिया अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर ही की जाती है। सभी केवली को समुद्घात की क्रिया करनी ही पड़ती है ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु छह मास आयु शेष रहने पर जिन्हें केवल ज्ञान होता है वे नियम से समुद्घात करते हैं। शेष केवलियों में समुद्घात भजनीय है। समुद्घात शब्द = सम्= सम्यक्, उत् =प्रबलता से, घात= कर्म का हनन (क्षय) इन तीन शब्दों के योग से बना है। जिसका अर्थ है एक साथ प्रबलता से जीवप्रदेशों से कर्म पुद्गल को उदीरणादिक से आकर्षित करके भोगना समुद्घात है अर्थात मूल शरीर को छोड़े बिना, उत्तर देहरूप जीवपिण्ड का - आत्मप्रदेशों के समूह को देह से बाहर निकालना ही समघात है।१३७ आयकर्म थोड़े रहे और वेदनादि शेष कर्म अधिक रह जाय तो उन सबको (कर्मों को) प्रदेश और स्थिति द्वारा समान करने के लिये केवलज्ञानी समुद्घात करते हैं। जिनके वेदनादि कर्म आयु जितने ही स्थिति वाले हों तो वे समुद्घात नहीं करते। वेदना आदि निमित्तों से जीवन के प्रदेशों का शरीर के भीतर रहते हुए भी बाहर निकालना वेदनादि सात समुद्घात है।१३८ समुद्घात की विधि और समय : केवलज्ञान, केवलदर्शन के प्राप्त होने पर केवली त्रिकालविषयक समस्त द्रव्य और पर्यायों को जानते एवं देखते हुए, करण, क्रम ३९८ __ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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