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________________ द्वारा ही असंख्यातगुण श्रेणिक्रम से कर्मस्कन्धों का घात करते हुये क्षीणकषाय के अंतिम समय को प्राप्त होने पर वहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घाति कमों को युगपद नाश करते हैं।१२९ (३) सूक्ष्म क्रिया अनियट्टी (प्रतिपाती, अनियट्टी) 'एकत्ववितर्क-अविचार' शुक्लध्यान से समस्त घातिकर्मइन्धन को जलाने के कारण केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर समस्त वस्तुओं के द्रव्य और पर्याय को युगपद जानते हैं, उन केवली के चरणों में देव, देवी आदि सब वन्दन करते हैं। __ चारों घाति कर्मों का नाश करके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र का अनुभव करता हुआ केवलज्ञानी एक मुहूर्त तक अथवा कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक विहार करता है। कर्मभूमिज मनुष्य की उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि वर्ष की होती है और वह कम से कम आठ वर्ष की अवस्था होने पर दीक्षा लेता है और दीक्षा लेते ही उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। ऐसी अवस्था में वह (केवलज्ञानी) जघन्य में दो घड़ी तक और उत्कृष्ट से आठ वर्ष कम एक पूर्व कोटिकाल तक भव्य जीवों को धर्मोपदेश करता हुआ विहार करता है। १३० जब केवली की आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है और वेदनीय, नाम, तथा गोत्र की भी स्थिति उतनी ही रहती है तब सब वचनयोग, मनोयोग तथा बादर काययोग को छोड़कर सूक्ष्मयोग का आलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती ध्यान प्रारंभ करते हैं। यहाँ क्रिया का अर्थ 'योग' किया गया है। वह जिसके पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है और उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती कहलाता है। जिसमें क्रिया (योग) सूक्ष्म होती है, उसे सूक्ष्म क्रिया कहते हैं। और सूक्ष्मक्रिया होकर जो अप्रतिपाती होता है, वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान कहलाता है। इसमें केवलज्ञान के द्वारा श्रुतज्ञान का अभाव होने से यह अवितर्क कहलाता है और अर्थान्तर की संक्रांति का अभाव होने से अविचार भी है। अतः यह ध्यान अवितर्क, अविचार और सूक्ष्म क्रिया से संबंध रखनेवाला होता है। इसमें काययोग सूक्ष्म होता है। १३१ केवली की आयु अन्तर्मुहूर्त ही शेष रहे और अघातिकर्म (वेदनीय, नाम, गोत्र) की स्थिति अधिक रहने पर केवली भगवान उनको बराबर करने के लिये समुद्घात करते हैं।१३२ किन्तु केवली समुद्घात करने के पहले आउज्जीकरण (आयोज्यकरण) की प्रक्रिया अवश्य करनी पड़ती है। आउज्जीकरण (आयोज्यकरण) : सभी सयोगी केवली मोक्ष गमन के एक मुहूर्त पहले केवली-समुद्घात करने के पहले किये जाने वाला शुभ-व्यापार-योग ध्यान के विविध प्रकार ३९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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