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व्यंजन : वचन, शब्द, वाक्य आदि को व्यंजन कहते हैं।
योगः मन, वचन और काय प्रवृत्ति से आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होने वाली चंचलता को योग कहा जाता है। उसके परिवर्तन को विचार कहते हैं। विचार का अर्थ-अर्थ व्यंजन और योग संक्रान्ति है।
संक्रान्ति :बदलना, परिवर्तन होना ही संक्रान्ति है। यह तीन प्रकार की है - अर्थ संक्रान्ति, व्यंजन संक्रान्ति और योग संक्रान्ति। इसे ही प्रविचार कहते हैं। विशुद्ध ध्यान के सामर्थ्य से जिसका मोहनीय कर्म सर्वथा नष्ट हो जाता है, उन्हें ही त्रिविध संक्रान्ति प्राप्त होती है।१२६
चौदह-दस-नौपूर्व का धारी, प्रशस्त तीन उत्तम संहननवाला, कषायों का नाश करने वाला, तीन योगों में से किसी एक योग में विद्यमान उपशान्तकषाय - वीतरागछद्मस्थ जीव ही श्रुतस्कन्ध- महासागर में लीन रहकर द्रव्य-गुण-पर्याय रूप श्रुत किरणों के प्रकाशबल से ध्यान करता है। ध्यान से अनेक नय, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, सात भंग, रत्नत्रय आदि श्रुतस्कन्धमहासागर में प्रवेश करके अर्थ से अर्थान्तर, गुणान्तर, पर्याय, पर्यायान्तर के बाद योगों की पंक्ति में स्थापित करके द्विसंयोग, त्रिसंयोग की अपेक्षा पृथक्त्ववितर्क-सविचार ध्यान के ४२ भंग उत्पन्न करके अन्तर्मुहूर्तकाल तक षट् द्रव्य व नौ पदार्थ का चिन्तन करता है। अर्थ से अर्थान्तर का संक्रमण होने पर भी ध्यान का विनाश नहीं होता, योंकि इससे चिन्तान्तर में गमन नहीं होता। इस ध्यान का फल संवर -निर्जरा ही है, जिससे अमर सुख की प्राप्ति होती है। १२७
(२) एकत्व वितर्क अविचार : इसमें चित्त की स्थिति हवारहित दीपक की तरह होती है। पूर्वश्रुतानुसार किसी भी परमाणु, जीव, ज्ञानादिगुण, उत्पादादि कोई एक पर्याय, शब्द, अर्थ, तीन योग में से कोई भी एक योग ध्येय रूप में होता है, अलग-अलग नहीं होता। एक ही ध्येय होने से इसमें अर्थ, व्यंजन और योगों का संक्रमण नहीं होता। चित्त एक ही पुद्गल पर स्थिर रहता है। इसलिये इसे 'एकत्व-वितर्क-अविचार' कहते हैं।१२८ सिर्फ अभेद से चिन्तन होने के कारण अर्थ, व्यंजन और योग की एकरूपता रहती है। द्रव्य, गुण, पर्याय में मेरूपर्वत के समान निश्चल भाव से अवस्थित चित्तवाले, असंख्यात गुण श्रेणिक्रम से कर्म स्कन्धों को गलानेवाले, अनन्तगुणहीन, श्रेणिक्रम से कर्मों के अनुभाग को शोषित करने वाले तथा कमों की स्थितियों को एक योग अथवा एक शब्द के आलंबन से ध्यान बल द्वारा घात करके वज्रऋषभनाराच संहनन वाला, शूर, वीर, चौदह, दस अथवा नौ पूर्वधारी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव ही अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्यान करता है। तदनन्तर शेष रहे क्षीणकषायकाल प्रमाण स्थितियों को छोड़कर उपरिम सब स्थितियों की उदय आदि गुण श्रेणिरूप से रचना करके पुनः स्थिति घात के विना अधः स्थिति गलना
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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