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________________ दुःखों को भोगता है, अकेला ही शोकग्रस्त होता है और अकेला ही चतुर्विधगति में परिभ्रमण करता है। लोक के सुखों का भोक्ता और सम्पूर्ण कर्मों का क्षयकर्ता अकेला जीवात्मा ही है। वास्तव में आत्मा को उत्तम क्षमादि दस धर्म ही चार गतियों के दुःख से बचा सकते हैं। इस प्रकार का चिन्तन ही एकत्वानुप्रेक्षा है। नमिराजर्षि ने एकत्व भावना का चिंतन किया था।१२२ इस प्रकार आगम कथित धर्मध्यान के ४+४+४+४=१६ भेद हैं। शुक्लध्यान के भेद : जैनागमानुसार शुक्लध्यान के भेद, लक्षण, आलम्बन तथा अनुप्रेक्षा इन सबके चार चार भेद हैं। कुल शुक्लध्यान के १६ भेद हैं। आगम में शुक्लध्यान के चार भेद किये हैं।- १२३ १. पृथक्त्व वितर्क सविचार, २. एकत्व वितर्क अविचार, ३. सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति और समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती। इनमें से दो प्रथम ध्यान छद्मस्थ को और अंतिम दो ध्यान केवली को होते हैं। क्योंकि प्रथम के दो ध्यान श्रुतज्ञान के आश्रित होते हैं तथा वे दोनों ही सवितर्क हैं, उनमें से प्रथम सविचार और दूसरा अविचार-विचाररहित है। फिर भी इन दोनों में श्रुतज्ञान का आलम्बन ही है, शेष दो में नहीं है। १२४ १. पृथक्त्व वितर्क सविचार : शुक्लध्यान के प्रथम भेद में विविध विषयों पर विचार किया जाता है। इनमें आये हुए शब्दों का अर्थ निम्नलिखित है। पृथक्त्व = भेद, वितर्क = विशेष तर्कणा (द्वादशांगश्रुत), विचार = विशेष रूप से चार -चलना, एक स्थिति से दूसरी स्थिति में गति करना तथा परमाणु व्यणुक आदि पदार्थ (अर्थ) व्यंजन, शब्द, योग, (मन, वचन, काय) में संक्रांति करना विचार है। भेद रूप से श्रुत का विचार जिस ध्यान में होता है, उसे 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचार' कहते हैं। यदि ध्याता पूर्वधर हो तो पूर्वगत श्रुत के आधारपर और पूर्वधर न हो तो स्वयं के संभवित श्रुत के आधार पर परमाणु आदि जड़ या चेतन, एक द्रव्य के उत्पाद, व्यय, ध्रुव, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, आदि पर्यायों का, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के अनुसार पूर्वगतश्रुतानुसार, अपूर्वगत श्रुतानुसार तथा अर्थ-व्यंजन-योग संक्रान्ति के अनुसार एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य पर, एक पर्याय से दूसरे पर्याय पर, एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक व्यंजन से दूसरे व्यंजन पर तथा मन-वचन-काय इन तीनों में से एक को छोड़ अन्य का आलंबन लेना ही पृथक्त्व वितर्क सविचार ध्यान कहलाता है। १२५ इसमें आये हुये अर्थ, व्यंजन, योग और संक्रान्ति का अर्थ निम्न प्रकार से हैं। अर्थ : ध्यान करने योग्य पदार्थ -ध्येय। ध्येय वस्तु को ही अर्थ कहते हैं। वह द्रव्य और पर्याय रूप होता है। पान के विविध प्रकार ३९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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