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हैं। प्रथम ही तीन भूमियों में उष्णवेदना, चौथी में उष्ण-शीत वेदना, पांचवीं में शीतोष्ण, छठी में शीत तथा सातवीं में शीततर वेदनाएं हैं। ये सब वेदनाएं अति मात्रा में होती हैं। मुख्यतः नारकी जीव प्रति समय दस प्रकार की वेदनाएं भोग रहा है - सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, खाज, परवशता, भय, शोक, जरा और ज्वर। इस तरह नरक की वेदनाएं तीव्रतम हैं। इन सबका चिन्तन करना ही संसारानुप्रेक्षा है। ११९
तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय (पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, प्रत्येक वनस्पतिकाय), द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तक पांचों में नाना प्रकार की छेदन, भेदन, काटन, मारन की वेदनाएं जीव को सहन करनी पड़ती हैं। पंचेन्द्रिय में जलचर भव में मत्स्यगलागल न्याय की भांति एक दूसरे को निगलते रहते हैं। स्थलचर भव में गाय, भैंस, हाथी, ऊंट, बैल, कुत्ता, आदि के भव में परवशतावश भूख-प्यास आदि अनेक प्रकार की वेदनाएं सहनी पड़ती हैं। नभचर के भव में तोता, कबूतर, पक्षी, चील, चिड़िया, तीतर आदि रूप में जन्म पाकर शिकारी, राजा आदि द्वारा अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं, मरण के दुःख को सहन करते हैं। तिर्यंचगति के जन्म-मरण रूप दुःखों का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है।१२०
मनुष्य भव में आर्य-अनार्य क्षेत्र में जन्म लेकर पूर्वकृत कर्मानुसार नानाविध कष्टों को सहन करना पड़ता है। अज्ञानतावश नानाविध योनियों में परिभ्रमण करना पड़ता है। जन्म, जरा, मरण, रोग का दुःख सहना पड़ता है। मनुष्य भव श्रेष्ठ माना जाता है, किन्तु जब तक जीव सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं होता है तब तक तो संसार में भटकना ही पड़ता है। इस प्रकार का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है। देव भव में भी बलशाली देवों की समद्धि देखकर शोक, क्रोध, विषाद, ईर्ष्या आदि के कारण दुःखी होते हैं। देव गति से च्युत होने का चिह्न देखकर विलाप करना, दुःखी होना, तथा कान्दर्पिक आदि देवों के क्रोधादि से पीड़ित होते रहते हैं। इस प्रकार चारों गति के जन्म-मरण रूप दुःखों का चिन्तन करके आत्मस्वरूप में रमण करना ही 'संसारानुप्रेक्षा' है। १२१
एकत्वानुप्रेक्षा : अनित्य, अशरण और संसारानुप्रेक्षा में बताये हुए माता पिता कुटुंब परिवार आदि कोई भी सुख दुःख में सहभागी नहीं होते। जन्म-मरण में भी साथी नहीं बनते। अकेला आता है और अकेला ही जाता है। अपने पूर्वकृतकर्मानुसार अगले भव को प्राप्त करता है। जब तक जीवात्मा को सच्ची दृष्टि प्राप्त नहीं होती तब तक प्राणी के संयोग-वियोग, जन्म-मरण में कोई भी सहायक नहीं बनते। यह जीवात्मा अपने परिवार, मित्रगण या अन्य के लिये कुछ कार्य करता है उसका नरकादि में स्वयं ही फल भोगता है। अतः यह जीव अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है, अकेले ही माँ के गर्भ में आता है, अकेला ही बाल यौवन वृद्धावस्था को पाता है, अकेला ही रोगादिग्रस्त
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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